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गोस्वामी तुलसीदास कृत रामचरित मानस

रामचरित मानस

बालकाण्ड

बालकाण्ड पेज 31

बोलि सकल सुर सादर लीन्हे। सबहि जथोचित आसन दीन्हे।।
बेदी बेद बिधान सँवारी। सुभग सुमंगल गावहिं नारी।।
सिंघासनु अति दिब्य सुहावा। जाइ न बरनि बिरंचि बनावा।।
बैठे सिव बिप्रन्ह सिरु नाई। हृदयँ सुमिरि निज प्रभु रघुराई।।
बहुरि मुनीसन्ह उमा बोलाई। करि सिंगारु सखीं लै आई।।
देखत रूपु सकल सुर मोहे। बरनै छबि अस जग कबि को है।।
जगदंबिका जानि भव भामा। सुरन्ह मनहिं मन कीन्ह प्रनामा।।
सुंदरता मरजाद भवानी। जाइ न कोटिहुँ बदन बखानी।।

छं0-कोटिहुँ बदन नहिं बनै बरनत जग जननि सोभा महा।
सकुचहिं कहत श्रुति सेष सारद मंदमति तुलसी कहा।।
छबिखानि मातु भवानि गवनी मध्य मंडप सिव जहाँ।।
अवलोकि सकहिं न सकुच पति पद कमल मनु मधुकरु तहाँ।।
दो0-मुनि अनुसासन गनपतिहि पूजेउ संभु भवानि।
कोउ सुनि संसय करै जनि सुर अनादि जियँ जानि।।100।।


जसि बिबाह कै बिधि श्रुति गाई। महामुनिन्ह सो सब करवाई।।
गहि गिरीस कुस कन्या पानी। भवहि समरपीं जानि भवानी।।
पानिग्रहन जब कीन्ह महेसा। हिंयँ हरषे तब सकल सुरेसा।।
बेद मंत्र मुनिबर उच्चरहीं। जय जय जय संकर सुर करहीं।।
बाजहिं बाजन बिबिध बिधाना। सुमनबृष्टि नभ भै बिधि नाना।।
हर गिरिजा कर भयउ बिबाहू। सकल भुवन भरि रहा उछाहू।।
दासीं दास तुरग रथ नागा। धेनु बसन मनि बस्तु बिभागा।।
अन्न कनकभाजन भरि जाना। दाइज दीन्ह न जाइ बखाना।।

छं0-दाइज दियो बहु भाँति पुनि कर जोरि हिमभूधर कह्यो।
का देउँ पूरनकाम संकर चरन पंकज गहि रह्यो।।
सिवँ कृपासागर ससुर कर संतोषु सब भाँतिहिं कियो।
पुनि गहे पद पाथोज मयनाँ प्रेम परिपूरन हियो।।
दो0-नाथ उमा मन प्रान सम गृहकिंकरी करेहु।
छमेहु सकल अपराध अब होइ प्रसन्न बरु देहु।।101।।


बहु बिधि संभु सास समुझाई। गवनी भवन चरन सिरु नाई।।
जननीं उमा बोलि तब लीन्ही। लै उछंग सुंदर सिख दीन्ही।।
करेहु सदा संकर पद पूजा। नारिधरमु पति देउ न दूजा।।
बचन कहत भरे लोचन बारी। बहुरि लाइ उर लीन्हि कुमारी।।
कत बिधि सृजीं नारि जग माहीं। पराधीन सपनेहुँ सुखु नाहीं।।
भै अति प्रेम बिकल महतारी। धीरजु कीन्ह कुसमय बिचारी।।
पुनि पुनि मिलति परति गहि चरना। परम प्रेम कछु जाइ न बरना।।
सब नारिन्ह मिलि भेटि भवानी। जाइ जननि उर पुनि लपटानी।।

छं0-जननिहि बहुरि मिलि चली उचित असीस सब काहूँ दईं।
फिरि फिरि बिलोकति मातु तन तब सखीं लै सिव पहिं गई।।
जाचक सकल संतोषि संकरु उमा सहित भवन चले।
सब अमर हरषे सुमन बरषि निसान नभ बाजे भले।।
दो0-चले संग हिमवंतु तब पहुँचावन अति हेतु।
बिबिध भाँति परितोषु करि बिदा कीन्ह बृषकेतु।।102।।

 

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