Saurabh Kumar  astrologer spiritual healer writer poet

 

छरमत डार्लिंग

सौरभ कुमार

(Copyright © Saurabh Kumar)

 

 

छरमत डार्लिंग

छरमत एक प्यारे इंसान थे। बड़े- बूढ़ों या वृद्धा स्त्रियों के शब्दों में एक दिल का भला इंसान है। जबान से दूध की उफान की तरह कभी-कभी गुस्सा कर बैठता है। भला-बुरा उस समय उसे नहीं दिखाई पड़ता है बस। लेकिन दिल का भला है। लेकिन दिल का भला होना हीं पर्याप्त होता है क्या? काश छरमत देख पाते- दस में कोई चार काम ना भी करे तो भी उसे काम करने वाला हीं मानना चाहिए। अगर 10 में 4 बात ना हीं सुने या माने तो भी उसे बात सुनने वाला हीं मानना चाहिए। लेकिन जब कोई सुनने से ज्यादा इंकार करे तो उसका कारण अपनी बात को कहने का लालच और इंकार या असहमति ना सुनने का अधैर्य है और उसका कारण भीतरी असहमति, अशांति या आत्महीनता का भाव होता है। और इस चार या एक बात ना होने की वजह से हम बाकी अवसर को गँवा देते हैं जबकि जिंदगी एक-एक अवसर को संजोने का नाम है।
छरमत का अपनी पत्नी से अक्सर कहा-सुनी चला करती थी। प्रेम भी था और प्यार का इजहार नोंक-झोंक के हीं रूप में चला करता था। पत्नी नवोढ़ा थी। नये विचार की लालसा उनमें थी। वो गुलाब की खुशबू बिखेरना चाहती थी। गुलाब तभी सुंदर है जब जीवन के काँटों को सहजता से अलग रखा जाए। काँटे जहाँ भी रहे काँटे हीं है। उससे दामन बचाना हमारा काम है। काँटे को चुभायेंगे तो अपने भीतर से निकालने में काँटे हीं लेते रहेंगे। काँटा अगर भीतर से निकाल भी दे तो भी वह काँटा हीं है। वह भी दूसरे को चुभ सकता है। और अक्सर छरमत के साथ यही होता था। आनुवांशिकी कहे या परिवेश या रोल मॉडल। एक छरमत व्यक्ति का व्यवहार उसके बच्चे में आनुवांशिकता के साथ-साथ परिवेश/वातावरण या रोल मॉडल के रूप में विकसित होता जाता है। कर्म कारण बनकर दूसरे कर्म को फलित करता है। तो अगर प्रतिक्रिया देने की शैली या कार्यप्रणाली छरमत में अपने पिता से आई तो यह अजूबा नहीं था। ऐसा नहीं था छरमत को नुकसान नहीं होता था। उन्हें अहसास या अनुभव नहीं होता था। कई बार काँटा निकालने में काँटा घुसाने की प्रवृत्त्ति काँटा भीतर न रहने पर भी आदत बन जाती है। उन्हें तो दर्द से हीं आराम मिल जाता था पर वह आराम दूसरे को घायल कर नासूर उनके जीवन का होता था। उनके बचपन का प्यार भी ऐसे हीं खोया था। ऐसा नहीं था कि वह प्यार उन्हें मिल हीं जाता। समय और स्थान ऐसी संभावना है जिनमें संभावना के फूल पर धूल डालने में ज्यादा मुश्किल नहीं होती। दूसरे की अनसोची समझी बात की नापसंदगी की प्रतिक्रिया कई बार हम गलत समय और जगह पर बात को दुहराकर करते हैं। वह बात तो अस्वीकृत हो जाती है। संभवत: अपनी नापसंदगी को दूसरे की नापसंदगी करने से संतोष भी अप्रत्यक्ष मिल जाता है। पर सामने वाला नहीं जानता कि यह आपकी नापसंदगी है। बल्कि उल्टे वह बात कहने के कारण वह आप हीं को नापसंद करता है और आप चाही बात और व्यक्ति से दूर हो जाते हैं। व्यक्ति जिस बात का जबाब खुद जोरदार तरीके से नहीं दे पाता है वह दूसरों से दिवा तो देता है पर इसी में छरमत अपनी बचपन की प्रेमिका जरूर खो बैठे थे।
असफलता खीज लाती है। दर्द से भरा आदमी मलहम हीं चाहता है जो उसके दर्द को कम करे या भुलाये। दर्द से छटपटाते आदमी में सुनने का धैर्य नहीं होता और छरमत जीवन में उसके बाद सही बात को सुन नहीं पाते थे। दर्द ऐसा सबसे कह नहीं पाये। दूसरे समझ नहीं पाये। और प्रतिक्रिया देने की शैली जो उन्होंने विकसित किया वह उन्हें वह मुकाम नहीं दिला पाया जो वो पा सकते थे।
खोयी चीज के प्रति संतोष का भाव एक चीज है परंतु संतोष होना अलग बात है। अगर सच में संतोष हो तो आदमी वर्तमान को जीता है। तब प्रतिक्रिया भी उचित ही रहती है।
मधुर ध्वनि के आधार पर जब जीवन के संबंध के सरगम विकसित हो तो जीवन में लालित्य आता है। पर जब छरमत के आहत मन की उत्पन्न ध्वनि पर संबंध के सरगम बने तो वह उन्हें शोर हीं ज्यादा लगा और वो नजदीक क्या जा पाते। संबंध से दूर हीं जा बैठे।
असंतोष अच्छा है। नये रास्ते खोजे जा सकते हैं। लेकिन तभी जब वह समाधान की राह पर चले। लेकिन अगर ऐसा नहीं होता तो वह असंतोष की प्रतिक्रिया का मॉडल हीं सामने ला पाता है। छरमत का अतिप्रतिक्रिया का व्यवहार उसके प्यारे बच्चे में असंतोष तो लाता था। एक वितृष्णा भरी ऊब वे अपने पिता या पिता के व्यवहार के प्रति अनुभव करते थे। या कई बार व्यवहार से ज्यादा यह पिता के हीं प्रति होता था। परंतु रोल मॉडल के रूप में उपलब्ध पिता उस समाधान के प्रति नहीं बढ़ा पाता था जो उसे भी नहीं मालूम था। अगर ऐसा नहीं होता तो वह भी व्यवहार के स्तर पर संतुलित होता। या खुद भी संतुलित हो जाता। आखिर क्या वजह थी कि अपमानजनक पसंग में वह दूसरे के अपमानित करने वाली प्रतिक्रिया पर वह खुद को अपमानित महसुस कर लेता था। जबकि उसका अपमान उसके कर्त्तव्य के औचित्य-अनौचित्य पर हीं निर्भर करता था। इसके बिना दूसरे का अपमानित करने वाला व्यवहार तो सिर्फ इतना हीं साबित करता था कि दूसरा का व्यवहार अपमान करने वाला है। उसकी प्रवृत्ति अपमान करने की है और वह इंसान मान-अपमान में बंधा है। या अपमानित महसुस कर खुद छरमत भी बँधे थे।
आज इतने वर्ष बाद भी छरमत जिंदा है। ये और बात है कि नोक-झोक के साथ होने वाला प्यार देने वाली पत्नी अब नहीं रह गयी है। और आज वो उस ना समझने वाली, ना प्यार देने वाली उसी बीबी के अभाव में टूटते जा रहे हैं। खोखले हो रहे हैं। खंडहर हो रहे हैं। अपनापन से जुड़ा बेटा तो असहमति, असंतोष के बाद भी, सहानुभूति खोने के बाद भी बेटा जब तब लौट के आ जाता है। देना चाहता है लेकिन बातचीत के स्तर पर समझते हुए भी उनसे निराशा से लौटता है। उनकी वह बहू बाहरी थी। उसका अपने पति से भी व्यवहार प्रेम के बजाए एक कॉमन अंडरस्टैंडिग थी। जहाँ कमिटमेंट कम जीने के साथ की व्यवहारिकता थी। अगर वह अपने ससुर के झक से ऊब कर अलग हुई या अपने पति से अनजाने हीं अचेतन रूप से उनसे दूर कर देती है तो क्या दोष उसका है।


 

  सौरभ कुमार का साहित्य  

 

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