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प्रियवदंबा

सौरभ कुमार

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उन अश्कों के लिए जो कभी उन आंखों में छलके

प्रियवदंबा

(गांगेय: अम्बा से प्रियवदंबा तक)

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4.
सावन के जल बूंदों में हस्तिनापुर भींग कर अपनी ऊर्जा ले रहा था, गांगेय अपने झूलते कुर्सी पर बैठा अपने ओब्सेसिव रूप को देख रहा था। उस क्षण को सोच रहा था जब वह अपने प्यार से मिला और मिलते हीं में खोने को भी अहसास कर बैठा।

जाने वो कौन घड़ी थी
जब तुम मिले और
हम बिछड़े थे

लेकिन इस निरंतर अहसास को जीते हुए अपने पिता महराज की वह मन:स्थिति गांगेय से छुप न सकी जो वह सावन की नदी तट की हरियाली से ले कर आते जा रहे थे। अपने लचीले और घूमने वाले राजदरबार के आसन को लेने की प्रतीकात्मक औचित्य और आवश्यकता का पूरा करने का समय गांगेय को दिखता जा रहा था।
अपने निजी सचिव के द्वारा गांगेय यह जान चुका था कि वह जिस अग्नि की तपिश को वह मानसिक क्षेत्र में बखूबी झेल रहा है वह बड़वाग्नि (सागर की आग) बन कर हस्तिनापुर के सम्राट को पूरी तरह घायल कर चूका है।
अब अगर वह इस स्थिति में एक युवराज का हस्तक्षेप नहीं करेगा तो संमृद्ध होते आर्य संस्कृति की पताका की स्थिति को हस्तिनापुर खो देगा।
युवराज के रूप में पहली हीं चुनौती सम्राट के अवरूद्ध मानसिक स्थिति से उत्पन्न राजव्यवस्था के अवरोध और राजकीय संधि के दायित्वों में शिथिलता से हस्तिनापुर को निकालने का था। एक मार्ग खुद के अधिकारों को बढ़ा कर दायित्वों को पूरा करने का हो सकता था। यह अस्थयी सफलता दे सकता था परंतु महाराज शांतनु के निकटवर्ती संबधियों में (जो महारज शांतनु और गांगेय के बाद हस्तिनापुर के राजगद्दी के अधिकारी थे) उसकी राजनीति के प्रति अविश्वास और दुर्भावना को जन्म देकर एक सत्ता का शीतसंघर्ष दे सकता था जो राजदरबार में आए नए युवराज के लिए एक अभीप्सित स्थिति नहीं था।

5.
हमेशा की महत्वपूर्ण स्थितियों की तरह गांगेय अपने रथ को खुद चलाने का प्रशिक्षण लिए अपने नियति की तरफ बढ़ रहा था। प्यार सिर्फ प्यार करने वाले को हीं मजबूर नहीं बनाता, हद से बढ़ जाए तो दूसरे को भी मजबूर  बना देता है।
वह उस व्यक्ति से मिलने जा रहा था, जो पर्वत से निकलने वाली नदी की तरह जिसकी महत्वाकांक्षा भी पर्वत को भेद कर अपनी जड़ जमा चुकी पेड़ बन चुकी थी।
एक संन्यासी के भविष्यकथन के लिए राजनीति के कठोर भूमि को इंकार करने की ठान चुका था।
गांगेय की कूटनीति की यह पहली हस्तिनापुर परीक्षा लेने जा रहा था।

6.
एक ऐसा पिता जो शिकार हुई मछलियों को बेच कर अपने समाज में  प्रमुख हो रहा था। जो अपनी स्थिति को ऊपर उठाने की जिजीविषा को लिए उत्कंठित बैठा था। वह पिता एक महर्षि की भविष्यवाणी को लिए, एक यशस्वी राजा के श्वसुर बनने की दृढ़ आशा के साथ बैठा था। जहाँ एक भक्त अपने एकनिष्ठ भक्ति द्वारा भगवत्ता को पाता है। जहाँ एक योगी और साधक ध्यान द्वारा अपने को ब्रह्म से मिला पाता है वहाँ वह धीर धीवर पिता गांगेय द्वारा नियति और अपने सब्र को मूर्त्तिमान रूप पा रहा था तो उसे दोष नहीं देना हीं सही था। वह अपने उच्चता को हीं नहीं वह अपने नन्हीं बच्ची की नियति का संरक्षण भी कर रहा था। जो अब नन्हीं बच्ची नहीं थी। वह विचार कर सकती थी। जो राजा के सानिध्य के गौरव को समझ रही थी। जो सत्ता के राजनीति के उलझनों को भले न समझ पायी हो उन में संलग्न व्यक्ति के उलझनों को देख पाती थी।
उस व्यक्तित्व को देख कर गांगेय को ज्यादा निराशा नहीं हुई। यह स्त्री नागरीय गरिमा से भले युक्त नहीं थी। अपने शांत दृष्टि में भी स्वाभिमान के गौरव से युक्त थी। जो गांगेय को सम्मान तो दे रही थी पंरतु अभिभूत नहीं थी।
हस्तिनापुर ने गांगेय की निष्ठा की दृढ़ माँग रखी और गांगेय को सत्यवती को महारानी बनाने के लिए इन मांगों के औचित्य में विरोध नहीं दिखाई दिया। एक प्रेमी महाराज के लिए दृढ़ भावुक युवराज ने महारानी सत्यवती के पिता की मांग को स्वीकार कर लिया। उसे व्यक्तिगत वचन में असुविधा नहीं हुई।  पंरतु राजगद्दी में महाराज की छवि ने अपने गुरू की प्रतिध्वनि (दे सकता है, अवश्य दे सकता है, अगर वह अपनी स्वतंत्रता से रूद्ध नहीं होता। अगर वह शासन से बंधा है तो दे सकता है। राजा से बंधने वाले नहीं दे पाते।) को सुन गांगेय सिहर उठा।
जब अतिरथी गांगेय ने सारथी बन कर महारानी सत्यवती को रथ पर ले कर हस्तिनापुर महल के लिए चला तो न गांगेय ने जाना नियति उसे किन स्थितियों का संरक्षक बनाने जा रहीं है और न मछलियों के शिकार के लिए नौका चलाने में कुशल सत्यवती ने जाना उसे नियति ने किन बातों के लिए शिकार बना लिया है।

7.
कभी-कभी नियति नाटकीय अंदाज में हमें थोड़े से सुख दे देती है ताकि हम आने वाले अन्जान दुखों के भोले शिकार बन सकें। जहाँ हम उस रास्ते पर इतनी दूर चले जायें जहाँ रास्ता हीं सिद्धी का रूप हो जाए। स्वस्थ राजकुमार चित्रांगद और नन्हीं कली विचित्रवीर्य के आने से महाराज पिता शांतनु का जीवन भरा-पूरा हो चुका था। राज्य की सीमायें भी बढ़ चुकी थी। समाज सांस्कृतिक रूप से ज्यादा समृद्ध हो चुका था। महारानी सत्यवती के जीवन में संतोष का भाव आ चुका था। युवराज गांगेय या संरक्षक गांगेय का प्रभाव आर्यावर्त पर फैल चुका था।
गांगेय के सामने अब अल्पवयस्क भावी महाराज चित्रांगद के प्रशिक्षण का दायित्व आ चुका था। शांतनु अब दिवंगत हो चुके थे। अब गांगेय के सामने पहली बार वास्तव सामने आ खड़ा हो चुका था। कहने को दायित्व और महत्व बढ़ चुका था। परंतु औचित्य अब गांगेय के सामने हीं नहीं दूसरों के निगाहों में उत्तर ढूंढता था। महारानी सत्यवती अब गांगेय पर ज्यादा भरोसा करने लगी थीं और दरबार के लोग जानबूझ कर महारानी के प्रति सम्मान और नेतृत्वकुशलता की तारीफ करते थे। चित्रांगद अब उनकी निगाह में गांगेय के समृद्ध अभिभावकत्व में  दूसरा समर्थ चित्रांगद बन रहा था। जो हस्तिनापुर के लिए अकेले हीं काफी था। गांगेय जानते थे कि अब युद्ध बढ़े स्तर पर होगें अत: अकेला महारथी महत्वपूर्ण होते हुए भी सब कुछ नहीं हो सकता। अत: उन्होंने हस्तिनापुर की सेना में जंगली, आदिवासियों और दुर्दमनीय लोगों की पहली पंक्ति बनाना शुरू कर दिया था।

 

 

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