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प्रियांशा

सौरभ कुमार

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प्रियांशा एक सुंदर लड़की थी। ऐसा नहीं कि वो एक बहुत हीं खूबसूरत लड़की हो, या हॉट हो। फिर भी कुछ ऐसा जरूर था कि उसे देखना एक सुकून देता था। वह 36-28-36 की फिगर वाली लड़की नहीं थी। लेकिन क्या उसे इसी लिए उसे पीठ पीछे मोटी या प्यार से मोटू कहना उचित हो सकता है? शैक्षणिक दृष्टि से उसका ऐकेडमिक रेकार्ड काफी अच्छा था। अपने राज्य के सबसे अच्छे कालेज में उसने अपनी पढ़ाई की थी। ऐसा भी नहीं उसने ऐसा किसी प्रकार के अनुग्रह द्वारा प्राप्त किया हो। या उसके जिंदगी में संघर्ष नहीं हो। पर कई बार ऐसा होता है ना तो आप उसकी चर्चा करते हैं या ना हीं समाज उसे इस रूप में देखता है। आज की तरह जब एक लड़की के साईकिल चलाने पर लोग सहज नहीं होते थे। उस लड़की को रास्ता ना देने या उसके रास्ते को असहज करने का प्रयास करते थे तब भी वह अपने रास्ते पर चलती रहती थी। जब तक वह स्कूटी पर आगे नहीं बढ़ी तब वह नहीं जान पाई जैसे-जैसे आगे बढ़ते जाओ रास्ते मिल हीं जाते हैं।

उसके गोल चेहरे में उसकी आँखे शांत रहती थी। वह चंचल तो थी पर शरारती नहीं थी। वह अपने सांस्कृतिक कार्यक्रम के बीच राज्य में एक शांत अपनी जगह बना चुकी थी। लेकिन उसके बाद एक ठहराव आ गया था उसके विकास में। या उसके कैरियर में। परंतु वह एक कैरियर ओरियेंटेड लड़की नहीं रह गयी थी। उसके भीतर सीखने की ललक तो थी। अब वह ज्यादा गहराई में डूबने लगी थी। लेकिन कई बार जब आप गहराई में जाते हैं तो ना चाहते हुए भी दूसरे उपेक्षित हो जाते हैं। दूसरे का उपेक्षित होना उस विषय के लिए तो बुरा नहीं होता परंतु उन्हें अपने लिए आपके ध्यान, आपके अटेंशन की जरूरत होती है और वे आपके कैरियर को गति देते हैं। एक तरह से प्रमोटर हो जाते हैं। यह भी एक कीमत होती है जो आपके भीतर की इच्छा ना होते हुए भी आपको उन्हें अपना मुस्कान देना पड़ता है।

प्रियांशा संगीत में M.A कर चुकी थी। अब वह संगीत के दर्शन को स्पर्श कर सकती थी। प्रियांशा के जीवन में गुरू नहीं था। उसे किसी मार्गदर्शक की जरूरत नहीं पड़ी थी। परतु यहाँ आ कर उसके संगीत के गुरू की भूमिका खुद बदला वह अनुभव करती थी। अब वह गुरू को ज्यादा समझने लगी थी। संगीत के गुरू के रूप में भी और एक जिंदगी के गुरू के रूप में भी। अगर गुरू सच में गुरू हो तो विषय और क्षेत्र महत्व नहीं रखता। तुम्हारी श्रद्धा भी महत्व नहीं रखता। ऐसा नहीं वह पहले आदर नहीं करती थी। परंतु भीतरी श्रद्धा तो अब उसके भीतर हीं प्रस्फुटित हुई थी।

आजकल वह यह सोचने लगी थी कि संगीत शिक्षा ज्यादा है या कला? एक गुरु ज्यादा बड़ा है या उससे सिखा हुआ अपने कला को मूर्त्त रूप देनेवाला कलाकार। स्वांत:सुखाय का मतलब क्या बिना किसी दूसरे के अपेक्षा या किसी के आगे प्रदर्शन के, स्वंय सुरों में डूबा हुआ पूर्ण अर्थ हो सकता है। इसके अलावे सिर्फ सुर की वास्तविक पहचान करा कर उसे अपने की आगे के लिए छोड़ देना क्या ये पूर्ण हो सकता है? क्या इसके आगे का रास्ता श्रेष्ठ होते हुए भी वासना या विद्यामाया का हीं क्षेत्र नहीं है। वह ब्राह्मण थी। इस लिए यह महत्वपूर्ण नहीं है कि उसका जन्म एक ब्राह्मण कुल में हुआ था या उसके संस्कार ब्राह्मण के थे। प्रश्न दोनों हीं उसके लिए ये नहीं थे। जिस तरह समृद्धि के आसक्ति से मुक्त एक ब्रह्मण अपने क्षेत्र में रह सकता था क्या अपने क्षेत्र के अहसास के बाद क्या वो भी बिना किसी समृद्धि या बाह्य आकांक्षा के बिना वह अपने रास्ते चल सकती है? एक कलाकार या परफॉरमर के मानदंड से क्या आज स्वत्व के साथ गुरु रूप में बचा जा सकता है। कुछ होने या सीखाने के अभिमान से मुक्त होकर निराश या अवसाद से अलग संतुष्ट होने का भाव तरल रूप से फैल सकता है। उसके घर में एक छोटा सा शिक्षण संस्थान था। वह कई बार उसमें शिक्षण भी कर चुकी थी। उसकी व्यवस्था में भी वह संलग्न थी। इसी के सहारे उसके परिवार का अस्तित्व अबतक रहा था।

आज वह अपने दो वर्ष से टूटे तानपुरे को ठीक करा कर गेरूए समीज में उगते सूर्य के साथ तानपुरे के तार को आंदोलित कर रही थी। शांति थी। ध्वनि या कोलाहल नहीं था। संगीत भी नहीं था। वो किसी के आने को बैठी थी। लोग आ हीं सकते थे परंतु प्रियांशा के भीतर इंतजार नहीं था।

वह शून्य के आगे जा चुकी थी। लेकिन यह शून्य नहीं था। परंतु इसे भारत में शून्य से हीं अभिहित करते हैं।

 

 

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