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नव्या दुल्हन

सौरभ कुमार

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नव्या दुल्हन

दुल्हन बनना किस लड़की के स्वप्न में नहीं होता। जहाँ हर चेतन और अचेतन प्रक्रिया परिवार, समाज और स्वयं उसके लिए भी इसी मोड़ के लिए उसे खड़ा करती है। तब नव्या दुल्हन बनने जा रही है इस कथन को वह किस रूप में ले। यहाँ नव्या स्वयं उसके नाम की भी संज्ञा है या उसके निर्णय का विशेषण। अगर उसने ऐसा निर्णय लिया तो क्या यह असामान्य था? या उसके जीये जीवन के अनुरूप या तादात्मय था जो दूसरे जीवन के रूप में भी तलाश थी। भविष्य रंगीन होता है, मधुर भी होता है, स्वप्न और आशा को भी लिए होता है। पर जीवन क्षणभंगुर होता है। आशा भी टूटते और रंग बदलते होता है।
पिता की अचानक मृत्यु के समय वह न तो बिल्कुल अबोध थी ना हीं बिल्कुल परिपक्व हीं। वह बहनों में सबसे छोटी थी। लाख कहें कि जीवन नहीं मत्यु क्षणभंगुर है। जीवन का भोग करो या उल्लास लो। सच तो यह है भंगुर रूप में टूटता तो क्षण में जीवन हीं है। मृत्यु का चादर कहाँ क्षण में हटता है। यह क्षण में घटता और फैल जाता है। भले जीवन नये रूप धर कर फिर जीवन की लालिमा के साथ आ जाये। स्वप्न भी अगर रूप बदल कर सामने आए तो लोग की आँख नाहक हीं विस्मय के साथ फैलती हैं। अनुभूति की करने वाली छोटी अवस्था अनुभूति का छोटा होना तो नहीं होता। प्यारी छोटी बहन होना उसे सिर्फ छोटी और प्यारी रूप में हीं नहीं लाता। प्यार उसे अपने निर्णय में दृढ़ता या अखंडता भी लाता है। भले उससे बड़ी बहन के ससुराल पक्ष से सहज मानवीयता मिली हो परंतु रिश्ते के तय होने में धन का महत्व उससे ओझल नहीं हो पाता। भले हीं भाई जिम्मेदारी पूरी करने के लिए रूपये जुटाने की बात करते हों, कुछ ऐसा हो जाता है कि उसका आत्मसम्मान अलग रूप में आ जाता है। वह सामान्य रूप से साँस नहीं ले पाती है। कुछ होता है, उसकी श्वाँस थमती है। एक बेचैनी, एक घुटन उसे घेरती है। कुछ ऐसा होता है कि उसे खुद के होने से भी एलर्जी होती है। कभी-कभी वह खुद का होना भी नहीं चाहती।
अब वह अपने विवाह के कागार पर खड़ी है। बातें घूमती हुई उस तक जाती हैं। उसके भाईयों का कैरियर के मुकाम के बदलाव में उसके शादी की बात पर आकर टिक जाती है। उसका दम घुटता है। कभी सौंदर्य के प्रति आकर्षण महसूस करने वाली धन के महत्व समझने पर जा चुकी है। उसके एलर्जी ने अंतत: श्वाँस के रोग के रूप में प्रकट होना शुरू किया है। जीवन भी क्या है? कभी जिसे चाहो उसके विपरीत पार्श्व पर आदमी जा पहुँचता है। कभी जिसे ना चाहा हो वही इयत्ता कर लेता है। वही छा जाता है। वही वह बादल बन जाता है जिससे जीवन मिलता है।
नव्या दुल्हन बन कर खड़ी हो चुकी है। गहनों से लदी वह मुख को नीचे खड़ी है। सामने होटल के सामने के सोफे पर बैठे मुख्यमंत्री की आँखे उस पर खडी है। किसी अन्य बहन में भी सरकार के लोग इस तरह नहीं आए थे। वह एक धनी, अतिसंपन्न, प्रतिष्ठित परिवार की सदस्य बन चुकी थी। यह और बात है कभी जिस सुंदरता का महत्व उसके लिए था वह उसके दूल्हे में नहीं था। उसके पति के मुख का भाग सफेद दाग से भरा था। उसके भीतर एक अलग संतुष्टि आ चुकी थी।

  सौरभ कुमार का साहित्य  

 

 

 

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