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काव्या

सौरभ कुमार

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काव्या

गुनाह वो है जो प्यार में होता है या गुनाह वह है जो बिना प्यार के होता है। अगर अंशुमान ने अपने हिसाब से हद को पार कर प्यार का सुख उससे पाया है तो वह लज्जित क्यूँ हो? वह प्यार को अगर नहीं समझ पाया या वह ऊष्मा को नहीं पाता तो क्या ये उसकी रिक्तता नहीं है भले हीं ये आज अपनी चालू होने का प्रमाण पाये। वह काव्या होकर अपने अस्तित्व को अगर संपूर्ण रूप से जी रही थी तो उसे क्यूँ लगा, वह पा रहा है जबकि सच तो यह है वह पा रही थी और उसने आज भी पाया है। सिर्फ अंशु प्राप्त कर भी नहीं पा रहा था। दोनों हीं रूप में काव्या ने पाया है। प्यार के रूप में भी। अपने भीतर के हद को जानकर और उसकी सीमा को जानकर भी। अगर अंशुमान उसे सच में प्यार कर रहा होता तो उसका सत्य शायद दूसरा होता। लेकिन सच तो यह है, आज उसे यही लगता है कि सत्य सिर्फ अपना होता है। यह अद्वैत हीं हो सकता है। द्वैत भाव के साथ सत्य की पपडी हीं हाथ आती है।

यह भी कैसा संयोग है, उसके सामने तालाब के जल में मंदिर की प्रतिछवि है। अगर वह मंदिर को देखना चाहे तो वह कैसे देख सकती है। अगर वह सोचने के लिए नहीं रूकती तो मंदिर को वह कैसे देख पाती। उसके सामने का तालाब तो मैदान में हो रहे जैनमुनि के प्रवचन को भी प्रतिध्वनित कर रहा है। क्या तालाब के हरेक प्रतिछवि और प्रतिध्वनि को काव्या का सत्य बन जाना चाहिए। क्या उसे इस लिए त्याग को अपने जीवन का सत्य बना लेना चाहिए क्योंकि अंशु के स्तर से वह ठगी गई है? क्या खुद काव्या का सत्य का कोई भी मूल्य नहीं रह गया है? अगर कर्म की भावना निर्दोष थी तो फिर आदमी निर्दोष क्यूँ नहीं होता? क्यूँ वह दूसरे के छल के लिए जीवन से ठगा जाता है। अगर तालाब का सच हीं सच होता तो कितनी बार अंशु उसके साथ तालाब के जल में प्रतिछवि होता था। लेकिन वह कहाँ सत्य बन पाया। सच तो यही है मंदिर मंदिर होता है, मंदिर का परिसर संपूर्ण मंदिर नहीं होता। मंदिर के गर्भगृह में प्रवेश कर सकना सत्य का और हीं रूप होता है। कर सको तो फिर ईश्वर के बाह्य आवरण गिर जाते हैं। उसे विश्वास है कि उसका समर्पण गलत नहीं है। उसने ईश्वर के प्रेम रूप को समर्पण किया था। ईश्वर सत्य का रास्ता उसे आज भी दिखा सकता है। आज उसके आसपास के लोग जिस बेचैनी में है, वह समझती है कितनी उसके लिए है और कितनी समाज के प्रति मोह से पैदा हुई है। समाज कभी सामने नहीं आता, आता है तो बाधा के हीं रूप में आता है। अच्छाई तो लोगों की सामने आती है। लेकिन गलत की रचना जो समाज करता है वह कभी सामने नहीं आता। कई बार लगता है समाज क्या एक न दिखने वाला राक्षस है जिसका भूत स्वतंत्र निर्णय लेने के मार्ग में बाधा है। वह फिर उसी सवाल पर आ जाती है, क्या किसी भूत और राक्षस के साथ सत्य को पाया जा सकता है। क्या जरूरत त्याग के बजाए, सत्य के मार्ग में इन्हीं तथाकथित भूत और राक्षस से पीछा छुड़ाया जाना है। 

3 साल बीत गये। तालाब के अंतस्तल में कितनी नई जलराशि भर गई। कितनी पुरानी जलराशि उपयोग में आ गई या समय के धूप में वाष्प बन गई। ऐसा नहीं, काव्या के भीतर गति नहीं हुई। हुई है, वह अकादमिक रूप से मास्टर डिग्री प्राप्त कर चुकी है। शोध के लिए भी चुन ली गई थी। लेकिन जिस मनोविज्ञान को वह पुस्तक से प्राप्त करती है वह अब जीवन के अनुभव से समझने लगी है। लेकिन मन को समझना साधन हीं हो सकता है। यह अपने आप साध्य नहीं हो सकता। जो मन को समझने का हीं कार्य करते हैं वे भी दूसरे उद्देश्य के तहत हीं करते हैं, सिर्फ मन को समझना हीं उद्देश्य नहीं होता। वे भी ऐसा इसलिए करते हैं क्योकि वे मन को समझते हैं या ज्यादा सटीक समझते हैं। काव्या के जीवन में कई शख्सियत ने आने की चेष्टा की। पर वे सभी कहीं न कहीं अंशु हीं थे। ऐसा नहीं काव्या ने अनुभव से जाना। ना ऐसा हीं काव्या ने उनपर अंशु को आरोपित किया। लेकिन एक चीज सभी का समान था। उनमें जीवन के प्रति दर्शन समान था। अगर जीवन को चलाने वाला दर्शन एक हो तो आदमी भले एक ना हो व्यवहार तो एक हीं होगा। काव्या सिर्फ संवेग को हीं महत्व नहीं देती। जीवन को चलाने वाले दर्शन को भी महत्व देती है।
उसने मनोविज्ञान से आरंभ किया। सामूहिक मनोविज्ञान से होते हुए वह समाजशास्त्र तक पहुँची और उसके बाद वह अनायास हीं इनकी अभिव्यक्ति साहित्य तक जा पहुँची। यह सही क्रम ही है ऐसा तो काव्या नहीं कहती। परंतु उसे ऐसा जरूर हिंदी के साहित्य के सांस्कृतिक पृष्ठभूमि में मिला कि वह यह सोचने लगी ऐसा क्या रहा होगा कि खुद ब्रह्म यह सोचने लगा कि अकेला वह बहुस्याम हो जाये। प्राचीन या अतीत की जो वेदना हिंदी में आई क्या यह रचना उसी की अभिव्यक्ति है? क्या बहुस्याम होने की इच्छा भी सही व्याख्या है? या उस वेदना का नामकरण न कर पा कर कुछ हो जो यह वेदना खत्म करे यह बात है? या ऐसी बात है कि वेदना और भूख और है और यह संपूर्ण रचना उससे अलग है। क्या वह जो अंशु में खोज रही थी, वह जो अंशु के सहारे खोज रही थी वह वेदना अलग है? क्या उसकी सारी अनुसंधान अलग रास्ते पर है?

आखिर ऐसा क्या है कि जो देवदास की पारो प्यार को हद तक प्यार करती है फिर भी वह एक सीमा के बाद प्यार के लिए आगे  नहीं जाती। भले हीं पारो समाज के कायदे तोड़ कर देवदास की सेवा का भार उठा लेना चाहती है। ऐसा क्यूँ है प्यार में हद तोड़ कर आगे बढ़ने वाली चन्द्रमुखी अंत में पूरी समाज की अनादृत पात्र बन जाती है। पैसा लेना हीं जब मजबूरी हो वह अगर पैसे लेने के अपने मनोभाव से ऊपर उठ जाए और वह अगर किसी के लिए धंधा समेट ले तो वह सिर्फ वहीं नहीं रह जाती। उसका रूपांतरण हो जाता है। सच तो यह है हम कितना हीं कहे जगत परिवर्तनशील है। लेकिन सबसे ज्यादा हम खुद हीं स्थिरतावादी है। एक बार अगर किसी पर ठप्पा या कहें लेबल चिपका दिया तो चिपका दिया। नाम का लेबल आगे चल कर भले बदनाम हो जाए तो हो जाए। बदनामी का ठप्पा हम नहीं छोड़ पाते। देवदास जानता है चन्द्रमुखी उसे प्यार करती है। वह भी अपनी अदृप्त लालसा को चन्द्रमुखी को बहू कह कर पुकारता है। लेकिन चन्द्रमुखी के उसके सेवा में साथ ले जाने की इच्छा का मान नहीं कर पाता। प्यार पारो ने किया ठीक। देवदास ने भी किया यह भी ठीक। लेकिन चन्द्रमुखी के प्यार की भावना सिर्फ उसके बदनाम गली के लेबल के चलते सही मूल्यांकन नहीं पाता। पारो क्या है? एक चन्द्रमुखी का साहस ना उठाने वाली चन्द्रमुखी। और चन्द्रमुखी क्या है? एक प्यार में साहस उठाने वाली पारो। अंधेरे रात में देवदास के कमरे में जाने वाली पारो भी देवदास को साहस उठाने के लिए हीं कहने गई थी। क्या होता अगर पारो देव के साथ चली गई होती। जिस पैसे से चन्द्रमुखी का जीवन बदल जाता। वह समाज और देव के लिए जीने लगती है शायद वह पैसा देवदास के हाथ नहीं आता। और एक संभावना अंत में पारो की चन्द्र्मुखी बनने के रूप में आता। आज भी कितनी लड़कियाँ रिमांड होम में पारो और चन्द्रमुखी के रूप में बीच झूले में झूलती हैं।  

काव्या आजकल शांति का ध्यान करती है। कहीं न कहीं वह इन भावना से ऊपर उठ कर जैन मंत्र से खिंचती जा रही है। वह अर्हतों को प्रणाम करती है जिन्होंने सत्य को पा लिया है और उसी के हो लिए। वह सिद्धों को प्रणाम करती है जिन्होंने सत्य को उपलब्ध कर भी सिर्फ उसी के नहीं हैं। अभी करूणावश दुनिया की तरफ भी मुख किए हुए हैं। अर्हत की तरह सत्य के लोक में नहीं लीन हुए हैं। उसे लगने लगा है दुनिया ब्रह्म की प्यास के अनुरूप नहीं है। वह प्यास अलग है, वह आकांक्षा अलग है सृष्टि अलग है। मानव की प्रेम की प्यास अलग है, प्यार को जिस रूप में पाना चाहते हैं वह अलग है।

काव्या को वह प्यास की असली रूप का विजन मिल गया है। वह अब सफेद साड़ी में अपनी रास्ता पर निकल चुकी है। वह ईश्वरीय प्यास को समझने लगी है। वह अर्हत बनने का भाव लिए ईश्वर के प्रेम के मार्ग पर एक संन्यासिन की तरह निकल चुकी है। क्या वह प्यार को तिरस्कृत करने के राह पर है? शायद नहीं, लेकिन प्यार के नाम पर चलने वाला प्यार नहीं। वह प्यार नहीं जिसका दर्शन भी क्षण में समाप्त होने वाला प्यार हो। वह प्यार जिसका दर्शन भी प्यार हो वह प्यार मिले तो वह स्वीकार कर लेगी। गलत कुमारगिरी का चित्रलेखा के प्रति अभिभूत होना नहीं था। गलत यह था कुमारगिरी प्यार को स्वीकार नहीं कर पाया था। वह प्यार की महिमा को नहीं समझ पाया था। अगर वह समझता तो वह गंगा में खुद को विसर्जित नहीं करता। चित्रलेखा के प्यार की राह में हीं रूक जाता। परंतु वह एक स्त्री का साथ नहीं चाह रहा था, उसे स्त्री से सुख चाहिए था। नहीं तो उसे ग्लानि नहीं होती। अगर वह सच में साकार में निराकार खोजता तो वह ग्लानि में नहीं जाता।

निराकार या ईश्वर के जीवन में नहीं आने से कोई समर्पण अपना नहीं छोड़ता। कहते हैं राम की साधना में माया भटकाती है लेकिन तभी जब माया आये तो हम थोड़ी दूर भटकने के बाद माया को गलत मानें। ईश्वर का एक नाम मायिन है। वह माया का अधिपति है। जब माया आये और हम उसे हीं राम की जगह कर दे तो अंत में उसा माया से ईश्वर का रूप भी दिख जाता है। लेकिन हाँ माया को भी राम की तरह पकड़ना होता है संभवत: राम से भी ज्यादा।

 

  सौरभ कुमार का साहित्य  

 

 

 

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