Saurabh Kumar  astrologer spiritual healer writer poet

 

क्रेडिट कार्ड और लोकमंगल

सौरभ कुमार

(Copyright © Saurabh Kumar)

Founder of brandbharat.com

 

क्रेडिट कार्ड और लोकमंगल

आज के समय में गांधीजी की प्रासंगिकता बढ़ती जा रही है। गांधीजी ‘लोकमंगल’ की साधना कर रहे थे। ‘लोकसुख’ की साधना नहीं। उनका लोक-मंगल सूक्ष्म था। उसकी कसौटी लोक की शारीरिक, मानसिक, आध्यात्मिक उन्नति थी। इस लोकमंगल के लिए वे शारीरिक, मानसिक कष्ट को सहने को तैयार थे। परंतु वे शरीर या मन के सुख के लिए आत्मा के कष्ट को सहने को तैयार नहीं थे। उन्होंने लोक-मंगल के लिए स्वदेशी को भी एक माध्यम, यन्त्र के रूप में प्रयोग किया।
मेरे शुरूआती विचार क्रेडिट-कार्ड के लिए उधार की संस्कृति के रूप में थे। लेकिन फिर इस पर क्रेडिट-कार्ड का लोक-मंगल की साधना में इसके स्थान के बारे में सोचने लगा। इस पर दो तरह से विचार किया जा सकता है। पहला विद्यार्थी के रूप में, दूसरा एक जीव के रूप में। विद्यार्थी के तौर पर क्रेडिट कार्ड का उपयोग सामान खरीदने और क्रेडिट कार्ड का बिल कुछ दिन बाद चुकाना निश्चित हीं उधार है। यह अन्तत: कल्याणकारी नहीं है।
प्रेमचन्दजी ने भी ‘गबन’ उपन्यास में नायक द्वारा नौकरी पेशा होने के ‘क्रेडिट’ (शाख) के बल पर गहने (विलासिता संबंधी आवश्यकता या अनावश्यक आवश्यकता) उधार लेने और इस वजह से नायक किस तरह पतन में फँसा, इसको बखूबी दिखाया है। परंतु हर चीज का उजला पक्ष भी होता है या हो सकता है। पहला तो क्रेडिट कार्ड या अन्य इस जैसी अन्य कार्ड जो तरल पूँजी या कैश को ले जाने के परेशानी से दूर करते हैं और इस से जो भारत में नकली नोट की समस्या बढ़ी है उससे बचाते हैं। इसके बढ़ते प्रयोग से कुछ हद तक नकली नोट के प्रवाह पर अंकुश भी लग सकता है। इसके अलावे अगर क्रेडिट कार्ड के बल पर छात्र को किसी दुकान या संस्थान से किताब पढ़ने को एक निश्चित दिनों के लिए मिले और वापस कर देने पर पैसे खर्च न करना पड़े या सिर्फ न्यूनतम शुल्क देना पड़े जैसा पुस्तकालय में होता है तब इसका लोक-मंगल में उपयोग हो सकता है। बहुत सी ऐसी पुस्तकें होती है जो पुस्तकालयों नहीं होती हैं, दुकानों में मौजूद होती हैं। तब सारे दुकान एक विद्यार्थी के लिए पुस्तकालय हीं हो जाते। हाँ, ये जरूर है कि छात्र या विद्यार्थी को पुस्तक की उचित देखभाल कर अपनी सुरूचि को दिखाना होता। साधन अपने आप में न बुरा है, न अच्छा। यह तो प्रयोग और उद्देश्य पर निर्भर है। क्रेडिट कार्ड पर भी यहीं नियम लागू होता है। क्रेडिट कार्ड द्वारा पुस्तकों की इस व्यवस्था पर जरूर है कि किताबें कम बिकेंगी। मैं मानता हूँ कि प्रकाशक महोदय की जेब भी कुछ हल्की रह जायेंगी। परंतु मुझे लगता है, गाँधीजी इस तरह सोचते कि लाभ कम होगा क्योंकि किताबें कम बीकेंगी परंतु कम छापना भी होगा। लेकिन ज्ञान का प्रचार-प्रसार ज्यादा द्रुत गति से होगा। जब हम इस प्रकृति में ‘ट्रस्टी’ के तौर पर हैं तो कम साधन (मुद्रा+लकड़ी+उत्पादन के अन्य साधन इत्यादि) के व्यय से अगर ज्यादा कल्याण हो तो यह ज्यादा श्रेष्ठ है।
जब एक जीव के तौर पर सोचता हूँ तो क्रेडिट कार्ड क्या है? मैं सामान खरीदूँगा, आप बिल भेजेंगे। मैं निश्चित दिन के भीतर पैसा जमा करूँगा। नहीं कर पाया तो आप ब्याज लेंगे। मुझे तो इसमें सिर्फ एक पक्ष सकारात्मक लगा कि अगर मैं आपात स्थिति में आर्थिक रूप से फँसा तो मेरी मुसीबतें कम होंगी।
यह जो क्रेडिट कार्ड का व्यवसाय है सेवाभाव से नहीं है। यह तो मानव की उस वृत्ति को सोचकर संचालित है जो अंतत: उन्हें ब्याज देगी हीं। अपने प्रवृत्ति पर, उपयोगिता के ढ़ंग से या कल्याण के ढ़ंग से न सोचकर, सहज आकर्षित होने की प्रवृत्ति से खर्च करेंगी।
ऐसे कई उदाहरण आये हैं कि लोगों ने क्रेडिट कार्ड के ऊपर अपनी आमदनी से ज्यादा का क्रय किया या संभाव्य आय के ऊपर अनावश्यक सामान जो अनिवार्य आवश्यकता मे नहीं आते, उनका क्रय किया और संभाव्य आय के न आने से मुसीबत में फँसे।
परंतु क्रेडिट कार्ड का एक सकारात्मक रूप भी आया है। जैसे ‘किसान क्रेडिट कार्ड’। इस कार्ड के जरिये वे खेती के लिए यन्त्र, उपकरण, बीज वगैरह खरीद सकते हैं। फसल आने के बाद उसका भुगतान कर सकते हैं। यह ऋण बाँटने से ज्यादा अच्छा है क्योंकि कभी-कभी गाँव के किसान कृषि के लिए मिले ऋण से अपने अन्य सामाजिक जरूरत की चीजें (जो अनिवार्य या आराम संबंधी भी नहीं) खरीद लेते हैं। बाद में वे अपने खेत को बेचकर या अन्य किसी तरीके से ऋण चुकाते हैं। इसी तथ्य को सामाजिक कथाकार शिवप्रसाद जी ने अपने ‘तकावी’ कहानी में दिखाया है।
अत: संक्षेप में कहा जा सकता है कि क्रेडिट कार्ड का एकमात्र गुण क्रय-शक्ति का वहन है। प्रतिबंध न रहने पर या क्षेत्र सीमित न रहने पर यह मानवीय प्रवृत्ति के देखकर खतरनाक भी हो सकता है। परंतु अगर इसका दिशा-निर्देश के साथ सीमा (आर्थिक) निरूपित करते हुए लागू किया जाये तो यह लोक-कल्याण का साधन भी बन सकता है।

  सौरभ कुमार का साहित्य  

 

 

 

top