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बया का घोसला

सौरभ कुमार

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बया का घोसला

कहते तो यही है कि पेट की आग सबसे बड़ी होती है। होती भी है तभी तो एक बिल्ली शिकार करने की मूड में थी। लेकिन ममत्व की भावना शायद उससे बड़ी होती है। एक पक्षी को अपने जीवन में घोसले की जरूरत नहीं है। प्रेम के दो क्षण के लिए भी एक नीड़ की आवश्यकता नहीं है। लेकिन सृजन अपने आप में एक आनंद को संभाले है। हम कहते है तिनके का घोसला लेकिन हर तिनका एक तिनका जरूर है लेकिन प्रयत्न में वह पहाड़ हीं होता है। वह तिनके का पहाड़ है लेकिन सच में वह प्रयत्न का पहाड़ है। लेकिन वह पहाड़ होकर भी अधूरा हीं था उसके नीचे का भाग अधूरा था जिसमें अंडे से वह अस्तित्व लेता। वह बड़ी सी बेबस घायल पक्षी खून से सनी बिल्ली के सामने थी। उसके पंख घायल हो चुके थे, उड़ना मुमकिन नहीं था और वह बिल्ली के पेट की आग की सार्थकता सिद्ध करने जा रही थी।
पेट की आग सिर्फ शिकार हीं नहीं करती। ठिठुरन भरी सुबह में क्षितिज 4 बजे दुकान से दूध बाँटने निकल चुका था। ठंढ़ की सुबह सिर्फ पत्नी के साथ बिस्तर का हीं आमंत्रण नहीं देती वह बीबी के लिए चार पैसे कमाने उससे दूर भी भेजती है। बिल्ली के पुरूषार्थ के बावजूद उसका भाग्य कमजोर निकला। शिकार अब शिकार नहीं था अधूरे घोसले से गिरा वह बया क्षितिज के बाँह में आराम पा उसके दुकान में सफाई और मरहम पा रहा थी। दूध बाँटने का काम शेष था। वह फिर दूध बाँटने निकला लेकिन उससे पहले वह कुछ पानी उसे पिला चुका था।
क्षितिज जब लौटा तो वह बया काउंटर पर नहीं थी बल्कि वह अपने पंजे के बड़े नाखून से कई कैरेट के दूध के पैकेट का नुकसान कर चुका थी। आदमी अपने स्वार्थ का नुकसान नहीं सहता। लेकिन कभी भावनायें भी जीतती है। कामना का अवरोध सिर्फ क्रोध हीं नहीं पैदा करता। प्रेम हीं करूणा बन बया के घाव का मलहम करती है। भावनायें अच्छी होने हीं से सब सुखद नहीं होता। बया दूसरी बार पानी पी चुकी थी। 9 बजे धूप की किरणें गरमाई ला रही थी। सुस्त बया के राहत के लिए पंखे को चला कर काउटंर की तरफ क्षितिज बढ़ा हीं कि हवा के स्पर्श होते हीं बया उड़ी और पंखे के डैने से लगकर ढ़ेर हो गई। उसके गर्दन से निकला लहू दुकान में फैल चुका था।
बया की जगह अब उसका सिर्फ घोसला हीं बचा था।

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  सौरभ कुमार का साहित्य  

 

 

 

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