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बारिश का पानी

सौरभ कुमार

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बारिश का पानी

बाबु अरसे बाद क्या कहें बल्कि अपनी जड़ों को खोकर गाँव लौटा था। लेकिन लौट आया अपनी जड़ की ओर ये बड़ी बात थी। वर्ना एक बार जाकर पुरानी टीस कम हीं लोगों में उभर पाती है। अक्सर हम वर्तमान में जीने को कहते हैं और अगर वर्तमान में पुराने को भूल जाएँ तो शिकवा भी करते हैं। बाबु खेत के मेड़ पर आकर एक पुराने पत्थर के आसपास आकर रूका तो जग्गी के आँख में एक रौशनी की लहर आकर रूकी। बाबु ने जग्गी के हाथ को पकड़ कर हँसते हुए हजामत बनाने की फरमाइश कर डाली। लेकिन जग्गी इसे कब का छोड़ चुका था उसके हाथ काँप गये। होठ हिले और उसने आर्द्र स्वर में लग जाने की बात कही। बाबु ने स्नेह के साथ अपना हठ जारी रखा। वह अब तक उस शिला पर बैठ चुका था। पहली बार भी तुमने लगा दिया था। एक बार और सही। पहली हजामत की बोहनी तुमने मुझपे की। एक बार फिर बोहनी होगी।

जग्गी पुराने लहर की भँवर में जा लगा। बाबु और जग्गी बचपन के साथी थे। धन की दीवार नहीं उठी सो नहीं हीं उठी। जग्गी बाबु से तकरीबन चार साल बड़ा था। जग्गी ने जब अपना पारिवारिक काम सीखा तो अपने कर्म की पहली बोहनी इसी शिला पर बाबु के साथ हीं किया। वे बरसात के दिन थे। भारी बारिश तो नहीं पर इतनी जरूर हुई थी कि मिट्टी की सौंधी सुगंध फैल चुकी थी। जग्गी छुपा कर कैंची लाया था। वह शिला के आसपास आकर ठिठका तो बाबु ने मन की बात तड़ते हुए रूकने की महत्व का अंदाजा किया। बैठों तो जग्गी ने कहा और उसे बाँह पकड़ कर बैठा दिया। जग्गी ने आईना को निकाला और दर्पण की नयी पहचान सीखायी। देखो तो कैसे लगते हो? दर्पण महज इसलिए नहीं है कि क्या दिखता है। इसे थोड़ी देर बाद फिर देखना। वह बाबु की हजामत बनाते गया और समझाते गया। जग्गी साथ में कुछ गुनगुना भी देता था। देखो बबुआ फैशन तो छलावा है। ऐसे करो, वैसे करो, इनके मुकाबले असली चीज तो सादगी में है। देखो कैसे लगते हो यह आईना इसलिए भी होता कि आदमी कैसा हो सकता है। और इस अर्थ में एक नाई का आईना जैसा होता है वैसा किसी का भी नहीं होता। तुम अगर सरल हो तो यह दिखे भी लेकिन गलती से बाबु को हल्की कैंची लग गई और एक बूँद खून उभर आया। बाबु ने हँसकर उसे देखा। गलती नई शुरूआत करने में होती है। इसी डर और आशंका से तो आगे बढ़ना है। और ये यथार्थ होता है। सिर्फ महज मन का भ्रम होता तो हिम्मत की जरूरत क्यूँ होती है।

चलो पैसा निकालो और बोहनी कराओ जग्गी ने कहा तो बाबु ने अचरज से देखा। क्योंकि साथी होकर जग्गी पैसे माँगेगा ऐसा बाबु सोच नहीं सकता था। जग्गी ने कहा जानते हो बाबु मैंने तुम्हारी हजामत हीं पहले क्यूँ बनाई क्योकिं तुम मेरे सबसे गहरे हो और ये हक मैं तुम्हारा हीं रखना चाहता था। जिंदगी है किस किस का बनाना है कौन जानता है लेकिन तुम खास थे इसलिए अपने कर्म को तुमसे जोड़ दिया। बाबु ने बोहनी कराई लेकिन जेब में पड़े एक मुट्ठी चिउड़ा से हीं बोहनी कराई।

बरसात हो चुकी थी। हरियाली छा गई थी। गाँव में पक्षी की आवाज थी। चिड़िया की चहचहाहट फैल रही थी। एक गजल गायक की स्मृति में कार्यक्रम चल रहा था। वो कागज की कश्ती बारिश के पानी में आगे बढ़ चुकी थी। जग्गी का पोता जीत गाने लग गया था। जो जग्गी में गुनगुनाने में स्वर पाया था। हजामत बन चुकी थी और जग्गी की आखिरी बोहनी भी हो चुकी थी।

 

 

  सौरभ कुमार का साहित्य  

 

 

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