मुंशी प्रेमचंद

वरदान

17 कमला के नाम विरजन के पत्र

पेज- 44

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मझगाँव

प्यारे,

एक सप्ताह तक चुप रहने की क्षमा चाहती हूँ। मुझे इस सप्ताह में तनिक भी अवकाश न मिला। माधवी बीमार हो गयी थी। पहले तो कुनैन को कई पुड़ियाँ खिलायी गयीं पर जब लाभ न हुआ और उसकी दशा और भी बुरी होने लगी तो, दिहलूराय वैद्य बुलाये गये। कोई पचास वर्ष की आयू होगी। नंगे पाँव सिर पर एक पगड़ो बाँधे, कन्धे पर अंगोछा रखे, हाथ में मोटा-सा सोटा लिये द्वार पर आकर बैठ गये। घर के जमींदार हैं, पर किसी ने उनके शरीर मे मिजई तक नहीं देखी। उन्हें इतना अवकाश ही नहीं कि अपने शरीर-पालन की ओर ध्यान दे। इस मंडल में आठ-दस कोस तक के लोग उन पर विश्वास करते हैं। न वे हकीम को लाने, न डाक्टर को। उनके  हकीम-डाक्टर जो कुछ हैं वे दिहलूराय है। सन्देशा सुनते ही आकर द्वार पर बैठ गये। डाक्टरों की भाँति नहीं की प्रथम सवारी माँगेंगे- वह भी तेज जिसमें उनका समय नष्ट न हो। आपके घर ऐसे बैठे रहेंगे, मानों गूँगें का गुड़ खा गये हैं। रोगी को देखने जायेंगे तो इस प्रकार भागेंगे मानो कमरे की वायु में विष भरा हुआ है। रोग परिचय और औषधि का उपचार केवल दो मिनट में समाप्त। दिहलूराय डाक्टर नहीं हैं- पर जितने मनुष्यों को उनसे लाभ पहुँचता हैं, उनकी संख्या का अनुमान करना कठिन है। वह सहानुभूति की मूर्ति है। उन्हें देखते ही रेगी का आधा रोग दूर हो जाता है। उनकी औषधियाँ ऐसी सुगम और साधारण होती हैं कि बिना पैसा-कौड़ी मनों बटोर लाइए। तीन ही दिन में माधवी चलने-फिरने लगी। वस्तुत: उस वैद्य की औषधि में चमत्कार है।
यहाँ इन दिनों मुगलिये ऊधम मचा रहे हैं। ये लोग जाड़े में कपड़े उधार दे देते हैं और चैत में दाम वसूल करते हैं। उस समय कोई बहाना नहीं सुनते। गाली-गलौज मार-पीट सभी बातों पर उतरा आते हैं। दो-तीन मनुष्यों को बहुत मारा। राधा ने भी कुछ कपड़े लिये थे। उनके द्वार पर जाक सब-के-सब गालियाँ देने लगे। तुलसा ने भीतर से किवाड़ बन्द कर दिये। जब इस प्रकार बस न चला, तो एक मोहनी गाय को खूँटे से खोलकर खींचते हुए ले चला। इतने मं राधा दूर से आता दिखाई दिया। आते ही आते उसने लाठी का वह हाथ मारा कि एक मुगलिये की कलाई लटक पड़ी। तब तो मुगलिये कुपित हुए, पैंतरे बदलने लगे। राधा भी जान पर खेन गया और तीन दुष्टों को बेकार कर दिया। इतने काशी भर ने आकर एक मुगलिये की खबर ली। दिहलूराय को मुगालियों से चिढ़ है। साभिमान कहा करते हैं कि मैंने इनके इतने रुपये डुबा दिये इतनों को पिटवा दिया कि जिसका हिसाब नहीं। यह कोलाहल सुनते ही वे भी पहुँच गये। फिर तो सैकड़ो मनुष्य लाठियाँ ले-लेकर दौड़ पड़े। उन्होंने मुगलियों की भली-भाँति सेवा की। आशा है कि इधर आने का अब साहस न होगा।
अब तो मइ का मास भी बीत गया। क्यों अभी छुट्टी नहीं हुई ?  रात-दिन तम्हारे आने की प्रतीक्षा है। नगर में बीमारी कम हो गई है। हम लोग बुहत शीघ्र यहँ से चले जायगे। शोक ! तुम इस गाँव की सैर न कर सकोगे।

तुम्हारी
विरजन

 

 

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