मुंशी प्रेमचंद

वरदान

16 स्नेह पर कर्त्तव्य की विजय

पेज- 37

बाबू श्यामचरण परम दृढ़चित्त मनुष्य थे। गृह के चारों ओर महल्ले-के महल्ले शून्य हो गये थे पर वे अभी तक अपने घर में निर्भय जमे हुए थे लेकिन जब उनका साहस मर गया तो सारे घर में खलबली मच गयी। गॉँव में जाने की तैयारियॉँ होने लगी। मुंशीजी ने उस जिले के कुछ गॉँव मोल ले लिये थे और मझगॉँव नामी ग्राम में एक अच्छा-सा घर भी बनवा रख था।  उनकी इच्छा थी कि पेंशन पाने पर यहीं रहूँगा काशी छोड़कर आगरे में कौन मरने जाय! विरजन ने यह सुना तो बहुत प्रसन्न हुई। ग्राम्य-जीवन के मनोहर दृश्य उसके नेत्रों में फिर रहे थे हरे-भरे वृक्ष और लहलहाते हुए खेत हरिणों की क्रीडा और पक्षियों का कलरव। यह छटा देखने के लिए उसका चित्त लालायित हो रहा था। कमलाचरण शिकार खेलने के लिए अस्त्र-शस्त्र ठीक करने लगे। पर अचनाक मुन्शीजी ने उसे बुलाकर कहा कि तम प्रयाग जाने के लिए तैयार हो जाओ। प्रताप चन्द्र वहां  तुम्हारी सहायता करेगा। गॉवों में व्यर्थ समय बिताने से क्या लाभ?  इतना सुनना था कि कमलाचरण की नानी मर गयी। प्रयाग जाने से इन्कार कर दिया। बहुत देर तक मुंशीजी उसे समझाते रहे पर वह जाने के लिए राजी न हुआ। निदान उनके इन अंतिम शब्दों ने यह निपटारा कर दिया-तुम्हारे भाग्य में विद्या लिखी ही नहीं है। मेरा मूर्खता है कि उससे लड़ता हूँ!
वृजरानी ने जब यह बात सुनी तो उसे बहुत दु:ख हुआ। वृजरानी यद्यपि समझती थी कि कमला का ध्यान पढ़ने में नहीं लगता;  पर जब-तब यह अरुचि उसे बुरी न लगती थी, बल्कि कभी-कभी उसका जी चाहता कि आज कमला का स्कूल न जाना अच्छा था। उनकी प्रेममय वाणी उसके कानों का बहुत प्यारी मालूम होती थी। जब उसे यह ज्ञात हुआ कि कमला ने प्रयाग जाना अस्वीकार किया है और लालाजी बहुत समझ रहे हैं, तो उसे और भी दु:ख हुआ क्योंकि उसे कुछ दिनों अकेले रहना सहय था, कमला पिता को आज्ञज्ञेल्लघंन करे, यह सह्रय न था। माधवी को भेजा कि अपने भैया को बुला ला। पर कमला ने जगह से हिलने की शपथ खा ली थी। सोचता कि भीतर जाँऊगा, तो वह अवश्य प्रयाग जाने के लिए कहेगी। वह क्या जाने कि यहाँ हृदय पर क्या बीत रही है। बातें तो ऐसी मीठी-मीठी करती है, पर जब कभी प्रेम-परीक्षा का समय आ जाता है तो कर्त्तव्य और नीति की ओट में मुख छिपाने लगती है। सत्य है कि स्त्रीयों में प्रेम की गंध ही नहीं होती।
जब बहुत देर हो गयी और कमला कमरे से न निकला तब वृजरानी स्वयं आयी और बोली-क्या आज घर में आने की शपथ खा ली है। राह देखते-देखते ऑंखें पथरा गयीं।
कमला- भीतर जाते भय लगता है।
विरजन- अच्छा चलो मैं संग-संग चलती हूँ, अब तो नहीं डरोगे?
कमला- मुझे प्रयाग जाने की आज्ञा मिली है।
विरजन- मैं भी तुम्हारे सग चलूँगी!
यह कहकर विरजन ने कमलाचरण की ओर आंखे उठायीं उनमें अंगूर के दोन लगे हुए थे। कमला हार गया। इन मोहनी ऑखों में ऑंसू देखकर किसका हृदय था, कि अपने हठ पर दृढ़ रहता?  कमेला ने उसे अपने कंठ से लगा लिया और कहा-मैं जानता था कि तुम जीत जाओगी। इसीलिए भीतर न जाता था। रात-भर प्रेम-वियोग की बातें होती रहीं! बार-बार ऑंखे परस्पर मिलती मानो वे फिर कभी न मिलेगी! शोक किसे मालूम था कि यह अंतिम भेंट है। विरजन को फिर कमला से मिलना नसीब न हुआ।

 

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