मुंशी प्रेमचंद

वरदान

15 कर्तव्य और प्रेम का संघर्ष

पेज- 30

जब तक विरजन ससुराल से न आयी थी तब तक उसकी दृष्टि में एक हिन्दु-पतिव्रता के कर्तव्य और आदर्श का कोई नियम स्थिर न हुआ था। घर में कभी पति-सम्बंधी चर्चा भी न होती थी। उसने स्त्री-धर्म की पुस्तकें अवश्य पढ़ी थीं, परन्तु उनका कोई चिरस्थायी प्रभाव उस पर न हुआ था। कभी उसे यह ध्यान ही न आता था कि यह घर मेरा नहं है और मुझे बहुत शीघ्र ही यहां से जाना पड़ेगा।
परन्तु जब वह ससुराल में आयी और अपने प्राणनाथ पति को प्रतिक्षण आंखों के सामने देखने लगी तो शनै: शनै: चित्-वृतियों में परिवर्तन होने लगा। ज्ञात हुआकि मैं कौन हूं, मेरा क्या कर्तव्य है, मेरा क्या र्धम और क्या उसके निर्वाह की रीति है? अगली बातें स्वप्नवत् जान पड़ने लगीं। हां जिस समय स्मरण हो आता कि अपराध मुझसे ऐसा हुआ है, जिसकी कालिमा को मैं मिटा नहीं सकती, तो स्वंय लज्जा से मस्तक झुका लेती और अपने को  उसे आश्चर्य होता कि मुझे लल्लू के सम्मुख जाने का साहस कैसे हुआ! कदाचित् इस घटना को वह स्वप्न समझने की चेष्टा करती, तब लल्लू का सौजन्यपूर्ण चित्र उसे सामने आ जाता और वह हृदय से उसे आर्शीवाद देती, परन्तु आज जब प्रतापचंद्र की क्षुद्र-हृदयता से उसे यह विचार करने का अवसर मिला कि लल्लू उस घटना को अभी भुला नहीं है, उसकी दृष्टि में अब मेरी प्रतिष्टा नहीं रही, यहां तककि वह मेरा मुख भी नहीं देखना चाहता, तो उसे ग्लनिपूर्ण क्रोध उत्पन्न हुआ। प्रताप की ओर से चित्त लिन हो गया और उसकी जो प्रेम और प्रतिष्टा उसके हृदय में थी वह पल-भर में जल-कण की भांति उड़ने लगी। स्त्रीयों का चित्त बहुत शीघ्र प्रभावग्राही होता है,जिस प्रताप के लिए वह अपना असतित्व धूल मेंमिला देने को तत्पर थी, वही उसके एक बाल-व्यवहार को भी क्षमा नहीं कर सकता, क्या उसका हृदय ऐसा संर्कीण है? यह विचार विरजन के हृदय में कांटें की भांति खटकने लगा।
आज से विरजन की सजीवता लुप्त हो गयी। चित्त पर एक बोझ-सा रहने लगा। सोचतीकि जब प्रताप मुझे भूल गये और मेरी रत्ती-भर भी प्रतिष्टा नहीं करते तो इस शोक से मै। क्यों अपना प्राण घुलाऊं? जैसे ‘राम तुलसी से, वैसे तुलसी राम से’। यदि उन्हें मझसे घृणा है, यदि वह मेरा मुख नहीं देखना चाहते हैं, तो मैं भी उनका मुख देखने से घ्रणा करती हूं और मुझे उनसे मिलने की इच्छा नहीं। अब वह अपने ही ऊपर झल्ला उठतीकि मैं प्रतिक्षण उन्हीं की बातें क्यों सोचती हूं और संकल्प करती कि अब उनका ध्यान भी मन में न आने दूंगी, पर तनिक देर में ध्यान फिर उन्हीं की ओर जा पहुंचता और वे ही विचार उसे बेचैन करने लगते। हृदय केइस संताप को शांत करने केलिए वह कमलाचरण को सच्चे प्रेम का परिचय देने लगी। वह थोड़ी देर के लिए कहीं चला जाता, तो उसे उलाहना देती। जितने रुपये जमा कर रखे थे, वे सब दे दिये कि अपने लिए सोने की घड़ी और चेन मोल ले लो। कमला ने इंकारकिया तो उदास हो गयी। कमला यों ही उसका दास बना हुआ था, उसके प्रेम का बाहुल्य देखकर और भी जान देने लगा। मित्रों ने सुना तो धन्यवाद देने लगे। मियां हमीद और सैयद अपने भाग्य को धिकारने लगे कि ऐसी स्नेही स्त्री हमको न मिली। तुम्हें वह बिन मांगे ही रुपये देती है और यहां  स्त्रीयों की खींचतान से नाक में दम है। चाहेह  अपने पास कानी कौड़ी न हो, पर उनकी इच्छा अवश्य पूरी होनी चाहिये, नहीं तो प्रलय मच जाय। अजी और क्या कहें, कभी घर में एक बीड़े पान के लिए भी चले जाते हैं, तो वहां भी दस-पांच उल्टी-सीधी सुने बिना नहीं चलता। ईश्वर हमको भी तुम्हारी-सी बीवी दे।
यह सब था, कमलाचरण भी प्रेम करता था और वृजरानी भी प्रेम करती थी परन्तु प्रेमियों को संयोग से जो हर्ष प्राप्त होता है, उसका विरजन के मुख पर कोई चिह्न दिखायी नहीं देता था। वह दिन-दिन दुबली और पतली होती जाती थी। कमलाचरण शपथ दे-देकर पूछताकि तुम दुबली क्यों होती जाती हो? उसे प्रसन्न् करने के जो-जो उपाय हो सकते करता, मित्रों से भी इस विषय में सम्मति लेता, पर कुछ लाभ न होता था। वृजरानी हंसकर कह दिया करतीकि तुम कुछ चिन्ता न करो, मैं बहुत अच्छी तरह हूं। यह कहते-कहते उठकर उसके बालों में कंघी लगाने लगती या पंखा झलने लगती। इन सेवा और सत्कारों से कमलाचरण फूलर न समाता। परन्तु लकड़ी के ऊपर रंग और रोगन लगाने से वह कीड़ा नहीं मरता, जो उसके भीतर बैठा हुआ उसका कलेजा खाये जाता है। यह विचार कि प्रतापचंद्र मुझे भूल गये और मैं उनकी  में गिर गयी, शूल की भांति उसके हृदय को व्यथित किया करता था। उसकी दशा दिनों – दिनों बिगड़ती गयी – यहां तक कि बिस्तर पर से उठना तक कठिन हो गया। डाक्टरों की दवाएं होने लगीं।

 

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