मुंशी प्रेमचंद

वरदान

10 सुशीला की मृत्यु

पेज- 20

तीन दिन और बीते, सुशीला के जीने की अब कोई संभावना न रही। तीनों दिन मुंशी संजीवनलाल उसके पास बैठे उसको सान्त्वना देते रहे। वह तनिक देर के लिए भी वहां से किसी काम के लिए चले जाते, तो वह व्याकुल होने लगती और रो-रोकर कहने लगती-मुझे छोड़कर कहीं चले गये। उनको नेत्रों के सम्मुख देखकर भी उसे संतोष न होता। रह-रहकर उतावलेपन से उनका हाथ पकड़ लेती और निराश भाव से कहती-मुझे छोड़कर कहीं चले तो नहीं जाओगे ? मुंशीजी यद्यपि बड़े दृढ-चित मनुष्य थे, तथापि ऐसी बातें सुनकयर आर्द्रनेत्र हो जाते। थोडी-थोडी देर में सुशीला को मूर्छा-सी आ जाती। फिर चौंकती तो इधर-उधर भौंजक्की-सी देखने लगती। वे कहां गये? क्या छोड़कर चले गयें ? किसी-किसी बार मूर्छा का इतना प्रकोप होता कि मुन्शीजी बार-बार कहते-मैं यही हूं,घबराओं नहीं। पर उसे विश्वास न आता। उन्हीं की ओर ताकती और पूछती कि –कहां है ? यहां तो नहीं है। कहां चले गये ? थोडी देर में जब चेत हो जाता तो चुप रह जाती और रोने लगती। तीनों दिन उसने विरजन, सुवामा, प्रताप एक की भी सुधि न की। वे सब-के-सब हर घडी उसी के पास खडे रहते, पर ऐसा जान पडता था, मानों वह मुशींजी के अतिरिक्त और किसी को पहचानती ही नहीं है। जब विरजन बैचैन हो जाती और गले में हाथ डालकर रोने लगती, तो वह तनिक आंख खोल देती और पूछती-‘कौन है, विरजन ? बस और कुछ न पूछती। जैसे, सूम के हृदय में मरते समय अपने गडे हुए धन के सिवाय और किसी बात का ध्यान नहीं रहयता उसी प्रकार हिन्दू-सत्री अन्त समय में पति के अतिरिक्त और किसी का ध्यान नहीं कर सकती।
कभी-कभी सुशीला चौंक पड़ती और विस्मित होकर पूछती-‘अरे। यह कौन खडा है ? यह कौन भागा जा रहा है ? उन्हें क्यों ले जाते है ? ना मैं न जाने दूंगी। यह कहकर मुंशीजी के दोनों हाथ पकड़ लेती। एक पल में जब होश आ जाता, तो लजिजत होकर कहती....’मैं सपना देख रही थी, जैसे कोई तुम्हें लिये जा रहा था। देखो, तुम्हें हमारी सौहं है, कहीं जाना नहीं। न जाने कहां ले जायेगा, फिर तुम्हें कैसे देखूंगी ? मुन्शीजी का कलेजा मसोसने लगता। उसकी ओर पति करूणा-भरी स्नेह-दृष्टि डालकर बोलते-‘नहीं, मैं न जाउंगा। तुम्हें छोड़कर कहां जाउंगा ? सुवामा उसकी दशा देखती और रोती कि अब यह दीपक बुझा ही चाहता है। अवस्था ने उसकी लज्जा दूर कर दी थी। मुन्शीजी के सम्मुख घंटों मुंह खोले खड़ी रहती।
चौथे दिन सुशीला की दशा संभल गयी। मुन्शीजी को विश्वास हो गया, बस यह अन्तिम समय है। दीपक बुझने के पहले भभक उठता है। प्रात:काल जब मुंह धोकर वे घर में आये, तो सुशीला ने संकेत द्वारा उन्हें अपने पास बुलाया  और कहा-‘मुझे अपने हाथ से थोड़ा-सा पानी पिला दो’’। आज वह सचेत थी। उसने विरजन, प्रताप, सुवामा सबको भली-भांति पहिचाना। वह विरजन को बड़ी देर तक छाती से लगाये रोती रही। जब पानी पी चुकी तो सुवामा से बोली-‘बहिन। तनिक हमको उठाकर बिठा दो, स्वामी जी के चरण छूं लूं। फिर न जाने कब इन चरणों के दर्शन होंगे। सुवामा ने रोते हुए अपने हाथों से सहारा देकर उसे तनिक उठा दिया। प्रताप और विरजन सामने खड़े थे। सुशीला ने मुन्शीजी से कहा-‘मेरे समीप आ जाओ’। मुन्शीजी प्रेम और करूणा से विहृल होकर उसके गले से लिपट गये और गदगद स्वर में बोले-‘घबराओ नहीं, ईश्वर चाहेगा तो तुम अच्छी हो जाओगी’। सुशीला ने निराश भाव से कहा-‘हॉ’ आज अच्छी हो जाउंगी। जरा अपना पैर बढ़ा दो। मैं माथे लगा लूं। मुन्शीजी हिचकिचाते रहे। सुवामा रोते हुए बोली-‘पैर बढ़ा दीजिए, इनकी इच्छा पूरी हो जाये। तब मुंशीजी ने चरण बढा दिये। सुशीला ने उन्हें दोनों हाथों में पकड कर कई बार चूमा। फिर उन पर हाथ रखकर रोने लगी। थोड़े ही देर में दोनों चरण उष्ण जल-कणों से भीग गये। पतिव्रता स्त्री ने प्रेम के मोती पति के चरणों पर निछोवर कर दिये। जब आवाज संभली तो उसने विरजन का एक हाथ थाम कर मुन्शीजी के हाथ में दिया और अति मन्द स्वर में कहा-स्वामीजी। आपके संग बहुत दिन रही और जीवन का परम सुख भोगा। अब प्रेम का नाता टूटता है। अब मैं पल-भर की और अतिथि हूं। प्यारी विरजन को तुम्हें सौंप जाती हूं। मेरा यही चिहृन है। इस पर सदा दया-दृष्टि रखना। मेरे भाग्य में प्यारी पुत्री का सुख देखना नहीं बदा था। इसे मैने कभी कोई कटु वचन नहीं कहा, कभी कठोर दृष्टि से नहीं देखा। यह मरे जीवन का फल है। ईश्वर के लिए तुम इसकी ओर से बेसुध न हो जाना। यह कहते-कहते हिचकियां बंध गयीं और मूर्छा-सी आ गयी।

 

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