मुंशी प्रेमचंद

वरदान

13 कायापलट

पेज- 27

कमलाचरण यह पत्र पाकर ऐसा प्रमुदित हुआ, माने सारे जगत की संपत्ति प्राप्त हो गयी। उत्तर देने की इच्छा हुई, पर लेखनी ही नहीं उठती थी। न प्रशस्ति मिलती है, न प्रतिष्ठा, न आरंभ का विचार आता, न समाप्ति का। बहुत चाहते हैं कि भावपूर्ण लहलहाता हुआ पत्र लिखूं, पर बुद्वि तनिक भी नहीं दौड़ती। आज प्रथम बार कमलाचरण को अपनी मुर्खता और निरक्षरता पर रोना आया। शोक ! मैं एक सीधा-सा पत्र भी नहीं लिख सकता। इस विचार से वह रोने लगा और घर के द्वार सब बन्द कर लिये कि कोई देख न ले।
तीसरे पहर जब मुंशी श्यामाचरण घर आये, तो सबसे पहली वस्तु जो उनकी दृष्टि में पड़ी, वह आग का अलावा था। विस्मित होकर नौकरों से पूडा-यह अलाव कैसा? 
नौकरों ने उत्तर दिया-सरकार ! दरबा जल रहा है।
मुंशीजी- (घुड़ककर) इसे क्यों जलाते हो? अब कबूर कहाँ रहेंगे?
कहार-छोटे बाबू की आज्ञा है कि सब दरबे जला दो
मुंशीजी- कबूतर कहाँ गये?
कहार-सब उड़ा दिये, एक भी नहीं रखा। कनकौए सब फाड़ डाले, डोर जला दी, बड़ा नुकसान किया।
कहरों ने अपनी समझ में मार-पीट का बउला लिया। बेचारे समझे कि मुंशीजी इस नुकासन क लिये कमलाचरण को बुरा-भला कहेंगे, परन्तु मंशीजी ने यह समाचार सुना तो भैंचक्के-से रह गये। उन्ही जानवरों पर कमलाचरण प्राण देता था, आज अकस्मात् क्या कायापलट हो गयी?  अवश्य कुछ भेद है। कहार से कहा- बच्चे को भेज दो।
एक मिनट में कहार ने आकर कहा- हजुर, दरवाजा भीतर से बन्द है। बहुत खटखटाया, बोलते ही नहीं।
इतना सुनना था कि मुंशीजी का रुधिर शुष्क हो गया। झट सन्देह हुआ कि बच्चे ने विष खा लिया। आज एक जहर खिलाने के मुकदमें का फैसला किया था। नंगे, पाँव दौड़े और बन्द कमरे के किवाड़ पर बजपूर्वक लात मारी और कहा- बच्चा! बच्चा! यह कहते-कहते गला रुँध गया। कमलाचरण पिता की वाणी पहिचान कर झट उठा और अपने आँसूं पोंछकर किवाड़ खोल दिया। परन्तु उसे कितना आश्चर्य हुआ, जब मुंशीजी ने धिक्कार, फटकार के बदले उसे हृदय से लगा लिया और व्याकुल होकर पूछा-बच्चा, तुम्हे मेरे सिर की कसम, बता दो तुमने कुछ खा तो नहीं लिया?  कमलाचरण ने इस प्रश्न का अर्थ समझने के लिये मुंशीजी की ओर आँखें उठायी तो उनमें जल भरा था, मुंशीजी को पूरा विश्वास हो गया कि अवश्यश् विपत्ति का सामना हुआ। एक कहार से कहा-डाक्टर साहब को बुला ला। कहना, अभी चलिये।
अब जाकर दुर्बुद्वि कमेलाचरण ने पिता की इस घबराहट का अर्थ समझा। दौड़कर उनसे लिपट गया और बोला- आपको भ्रम हुआ है। आपके   सिर की कसम, मैं बहुत अच्छी तरह हूँ।
परन्तु डिप्टी साहब की बुद्वि स्थिर न थी ;  समझे, यह मुझे रोककर विलम्ब करना चाहता है। विनीत भाव से बोले-बच्चा?  ईश्वर के लिए मुझे छोड़ दो, मैं सन्दूक से एक औषधि ले आऊँ। मैं क्या जानता था कि तुम इस नीयत से छात्रालय में जा रहे हो।
कमलाचरण- इर्श्वर-साक्षी से कहता हूँ, मैं बिलकुल अच्छा हूँ। मैं ऐसा लज्जावान होता, तो इतना मूर्ख क्यों बना रहता?  आप व्यर्थ ही डाक्टर साहब को बुला रहे हैं।
मुंशीजी- (कुछ-कुछ विश्वास करके) तो किवाड़ बन्द कर क्या करते थे?
कमलाचरण- भीतर से एक पत्र आया था, उत्तर लिख रहा था।
मुंशीजी- और यह कबूतर वगैरह क्यों उड़ा दिये?
कमला- इसीलिए कि निश्चिंतापूर्वक पढूँ। इन्हीं बखेड़ों में समय नष्ट होता था। आज मैनें इनका अन्त कर दिया। अबा आप देखेंगे कि मैं पढ़ने में कैसा जी लगाता हूँ।
अब जाके डिप्टी साहब की बुद्वि ठिकाने आयी। भीतर जाकर प्रेमवती से समाचार पूछा तो उसने सारी रामायण कह सुनायी। उन्होंने जब सुना कि विरजन ने क्रोध में आकर कमला के कनकौए फाड़ डाले और चर्ख्रिया तोड़ डाली तो हंस पड़े और कमलाचरण के विनोद के सर्वनाश का भेद समझ में आ गया। बोले-जान पड़ता है कि बहू इन लालजी को सीधा करके छोड़ेगी।

 

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