मुंशी प्रेमचंद - निर्मला

premchand nirmla premchand hindi novel

निर्मला

पच्चीस

पेज- 79

भीरुता का कच्चा तागा भी टूट गया। नदी के कगार पर पहुंच कर भागती हुई सेना में अद्भुत शक्ति आ जाती है। डॉक्टर साहब ने सिर उठाकर निर्मला को देखा और अनुराग में डूबे हुए स्वर में बोले- नहीं, निर्मला, अब आती हो होंगी। अभी न जाओ। रोज सुधा की खातिर से बैठती हो, आज मेरी खातिर से बैठो। बताओ, कम तक इस आग में जला करु? सत्य कहता हूं निर्मला...।
निर्मला ने कुछ और नहीं सुना। उसे ऐसा जान पड़ा मानो सारी पृथ्वी चक्कर खा रही है। मानो उसके प्राणों पर सहस्रों वज्रों का आघात हो रहा है। उसने जल्दी से अलगनी पर लटकी हुई चादर उतार ली और बिना मुंह से एक शब्द निकाले कमरे से निकल गई। डॉक्टर साहब खिसियाये हुए-से रोना मुंह बनाये खड़े रहे! उसको रोकने की या कुछ कहने की हिम्मत न पड़ी।
निर्मला ज्योंही द्वार पर पहुंची उसने सुधा को तांगे से उतरते देखा। सुधा उसे निर्मला ने उसे अवसर न दिया, तीर की तरह झपटकर चली। सुधा एक क्षण तक विस्मेय की दशा में खड़ी रहीं। बात क्या है, उसकी समझ में कुछ न आ सका। वह व्यग्र हो उठी। जल्दी से अन्दर गई महरी से पूछने कि क्या बात हुई है। वह अपराधी का पता लगायेगी और अगर उसे मालूम हुआ कि महरी या और किसी नौकर से उसे कोई अपमान-सूचक बात कह दी है, तो वह खड़े-खड़े निकाल देगी। लपकी हुई वह अपने कमरे में गई। अन्दर कदम रखते ही डॉक्टर को मुंह लटकाये चारपाई पर बैठे देख। पूछा- निर्मला यहां आई थी?
डॉक्टर साहब ने सिर खुजलाते हुए कहा- हां, आई तो थीं।
सुधा- किसी महरी-अहरी ने उन्हें कुछ कहा तो नहीं? मुझसे बोली तक नहीं, झपटकर निकल गईं।
डॉक्टी साहब की मुख-कान्ति मजिन हो गई, कहा- यहां तो उन्हें किसी ने भी कुछ नहीं कहा।
सुधा- किसी ने कुछ कहा है। देखो, मैं पूछती हूं न, ईश्वर जानता है, पता पा जाऊंगी, तो खड़े-खड़े निकाल दूंगी।
डॉक्टर साहब सिटपिटाते हुए बोले- मैंने तो किसी को कुछ कहते नहीं सुना। तुम्हें उन्होंने देखा न होगा।
सुधा-वाह, देखा ही न होगा! उसनके सामने तो मैं तांगे से उतरी हूं। उन्होंने मेरी ओर ताका भी, पर बोलीं कुद नहीं। इस कमरे में आई थी?
डॉक्टर साहब के प्राण सूखे जा रहे थे। हिचकिचाते हुए बोले- आई क्यों नहीं थी।
सुधा- तुम्हें यहां बैठे देखकर चली गई होंगी। बस, किसी महरी ने कुछ कह दिया होगा। नीच जात हैं न, किसी को बात करने की तमीज तो है नहीं। अरे, ओ सुन्दरिया, जरा यहां तो आ!
डॉक्टर- उसे क्यों बुलाती हो, वह यहां से सीधे दरवाजे की तरफ गईं। महरियों से बात तक नहीं हुई।
सुधा- तो फिर तुम्हीं ने कुछ कह दिया होगा।
डॉक्टर साहब का कलेजा धक्-धक् करने लगा। बोले- मैं भला क्या कह देता क्या ऐसा गंवाह हूं?
सुधा- तुमने उन्हें आते देखा, तब भी बैठे रह गये?
डॉक्टर- मैं यहां था ही नहीं। बाहर बैठक में अपनी ऐनक ढूंढ़ता रहा, जब वहां न मिली, तो मैंने सोचा, शायद अन्दर हो। यहां आया तो उन्हें बैठे देखा। मैं बाहर जाना चाहता था कि उन्होंने खुद पूछा- किसी चीज की जरुरत है? मैंने कहा- जरा देखना, यहां मेरी ऐनक तो नहीं है। ऐनक इसी सिरहाने वाले ताक पर थी। उन्होंने उठाकर दे दी। बस इतनी ही बात हुई।
सुधा- बस, तुम्हें ऐनक देते ही वह झल्लाई बाहर चली गई? क्यों?

 

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