मुंशी प्रेमचंद - निर्मला

premchand nirmla premchand hindi novel

निर्मला

चौबीस

पेज- 75

मुंशीजी पांच बजे कचहरी से लौटे और अन्दर आकर चारपाई पर गिर पड़े। बुढ़ापे की देह, उस पर आज सारे दिन भोजन न मिला। मुंह सूख गया। निर्मला समझ गयी, आज दिन खाली गयां निर्मला ने पूछा- आज कुछ न मिला।
मुंशीजी- सारा दिन दौड़ते गुजरा, पर हाथ कुछ न लगा।
निर्मला- फौजदारी वाले मामले में क्या हुआ?
मुंशीजी- मेरे मुवक्किल को सजा हो गयी।
निर्मला- पंडित वाले मुकदमे में?
मुंशीजी- पंडित पर डिग्री हो गयी।
निर्मला- आप तो कहते थे, दावा खरिज हो जायेगा।
मुंशीजी- कहता तो था, और जब भी कहता हूं कि दावा खारिज हो जाना चाहिए था, मगर उतना सिर मगजन कौन करे?
निर्मला- और सीरवाले दावे में?
मुंशीजी- उसमें भी हार हो गयी।
निर्मला- तो आज आप किसी अभागे का मुंह देखकर उठे थे।
मुंशीजी से अब काम बिलकुल न हो सकता थां एक तो उसके पास मुकदमे आते ही न थे और जो आते भी थे, वह बिगड़ जाते थे। मगर अपनी असफलताओं को वह निर्मला से छिपाते रहते थे। जिस दिन कुछ हाथ न लगता, उस दिन किसी से दो-चार रुपये उधार लाकर निर्मला को देते, प्राय: सभी मित्रों से कुछ-न-कुछ ले चुके थे। आज वह डौल भी न लगा।
निर्मला ने चिन्तापूर्ण स्वर में कहा- आमदनी का यह हाल है, तो ईश्श्वर ही मालिक है, उसक पर बेटे का यह हाल है कि बाजार जाना मुश्किल है। भूंगी ही से सब काम कराने को जी चाहता है। घी लेकर ग्यारह बजे लौटा। कितना कहकर हार गयी कि लकड़ी लेते आओ, पर सुना ही नहीं।
मुंशीजी- तो खाना नहीं पकाया?
निर्मला- ऐसी ही बातों से तो आप मुकदमे हारते हैं। ईंधन के बिना किसी ने खाना बनाया है कि मैं ही बना लेती?
मुंशीजी- तो बिना कुछ खाये ही चला गया।
निर्मला- घर में और क्या रखा था जो खिला देती?
मुंशीजी  ने डरते-डरते कहका- कुछ पैसे-वैसे न दे दिये?
निर्मला ने भौंहे सिकोड़कर कहा- घर में पैसे फलते हैं न?
मुंशीजी ने कुछ जवाब न दिया। जरा देर तक तो प्रतीक्षा करते रहे कि शायद जलपान के लिए कुछ मिलेगा, लेकिन जब निर्मला ने पानी तक न मंगवाय, तो बेचारे निराश होकर चले गये। सियाराम के कष्ट का अनुमान करके उनका चित्त चचंल हो उठा। एक बार भूंगी ही से लकड़ी मंगा ली जाती, तो ऐसा क्या नुकसान हो जाता? ऐसी किफायत भी किस काम की कि घर के आदमी भूखे रह जायें। अपना संदूकचा खोलकर टटोलने लगे कि शायद दो-चार आने पैसे मिल जायें। उसके अन्दर के सारे कागज निकाल डाले, एक-एक, खाना देखा, नीचे हाथ डालकर देखा पर कुछ न मिला। अगर निर्मला के सन्दूक में पैसे न फलते थे, तो इस सन्दूकचे में शायद इसके फूल भी न लगते हों, लेकिन संयोग ही कहिए कि कागजों को झाडक़ते हुए एक चवन्नी गिर पड़ी। मारे हर्ष के मुंशीजी उछल पड़े। बड़ी-बड़ी रकमें इसके पहले कमा चुके थे, पर यह चवन्नी पाकर इस समय उन्हें जितना आह्लाद हुआ, उनका पहले कभी न हुआ था। चवन्नी हाथ में लिए हुए सियाराम के कमरे के सामने आकर पुकारा। कोई जवाब न मिला। तब कमरे में जाकर देखा। सियाराम का कहीं पता नहीं- क्या अभी स्कूल से नहीं लौटा? मन में यह प्रश्न उठते ही मुंशीजी ने अन्दर जाकर भूंगी से पूछा। मालूम हुआ स्कूल से लौट आये।
मुंशीजी ने पूछा- कुछ पानी पिया है?
भूंगी ने कुछ जवाब न दिया। नाक सिकोड़कर मुंह फेरे हुए चली गयी।
मुंशीजी अहिस्ता-आहिस्ता आकर अपने कमरे में बैठ गये। आज पहली बार उन्हें निर्मेला पर क्रोध आया, लेकिन एक ही क्षण क्रोध का आघात अपने ऊपर होने लगा। उस अंधेरे कमेरे में फर्श पर लेटे हुए वह अपने पुत्र की ओर से इतना उदासीन हो जाने पर धिक्कारने लगे। दिन भर के थके थे। थोड़ी ही देर में उन्हें नींद आ गयी।
भूंगी ने आकर पुकारा- बाबूजी, रसोई तैयार है।
मुंशीजी चौंककर उठ बैठे। कमरे में लैम्प जल रहा था पूछा- कै बज गये भूंगी? मुझे तो नींद आ गयी थी।
भूंगी ने कहा- कोतवाली के घण्टे में नौ बज गये हैं और हम नाहीं जानित।
मुंशीजी- सिया बाबू आये?
भूंगी- आये होंगे, तो घर ही में न होंगे।
मुंशीजी ने झल्लाकर पूछा- मैं पूछता हूं, आये कि नहीं? और तू न जाने क्या-क्या जवाब देती है? आये कि नहीं?
भूंगी- मैंने तो नहीं देखा, झूठ कैसे कह दूं।
मुंशीजी फिर लेट गये और बोले- उनको आ जाने दे, तब चलता हूं।
आध घंटे द्वार की ओर आंख लगाए मुंशीजी लेटे रहे, तब वह उठकर बाहर आये और दाहिने हाथ कोई दो फर्लांग तक चले। तब लौटकर द्वार पर आये और पूछा- सिया बाबू आ गये?
अन्दर से आवाज आयी- अभी नहीं।
मुंशीजी फिर बायीं ओर चले और गली के नुक्कड़ तक गये। सियाराम कहीं दिखाई न दिया। वहां से फिर घर आये और द्वारा पर खड़े होकर पूछा- सिया बाबू आ गये?
अन्दर से जवाब मिला- नहीं।
कोतवाली के घंटे में दस बजने लगे।
मुंशीजी बड़े वेग से कम्पनी बाग की तरफ चले। सोचन लगे, शायद वहां घूमने गया हो और घास पर लेटे-लेट नींद आ गयी हो। बाग में पहुंचकर उन्होंने हरेक बेंच को देखा, चारों तरफ घूमे, बहुते से आदमी घास पर पड़े हुए थे, पर सियाराम का निशान न था। उन्होंने सियाराम का नाम लेकर जोर से पुकारा, पर कहीं से आवाज न आयी।
ख्याल आया शायद स्कूल में तमाशा हो रहा हो। स्कूल एक मील से कुछ ज्यादा ही था। स्कूल की तरफ चले, पर आधे रास्ते से ही लौट पड़े। बाजार बन्द हो गया था। स्कूल में इतनी रात तक तमाशा नहीं हो सकता। अब भी उन्हें आशा हो रही थी कि सियाराम लौट आया होगा। द्वार पर आकर उन्होंने पुकारा- सिया बाबू आये? किवाड़ बन्द थे। कोई आवाज न आयी। फिर जोर से पुकारा। भूंगी किवाड़ खोलकर बोली- अभी तो नहीं आये। मुंशीजी ने धीरे से भूंगी को अपने पास बुलाया और करुण स्वर में बोले- तू ता घर की सब बातें जानती है, बता आज क्या हुआ था?

 

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