मुंशी प्रेमचंद - निर्मला

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निर्मला

बीस

पेज- 64

अबकी सुधा के साथ निर्मला को भी आना पड़ा। वह तो मैके में कुछ दिन और रहना चाहती थी, लेकिन शोकातुर सुधा अकेले कैसे रही! उसको आखिर आना ही पड़ा। रुक्मिणी ने भूंगी से कहा- देखती है, बहू मैके से कैसा निखरकर आयी है!
भूंगी ने कहा- दीदी, मां के हाथ की रोटियां लड़कियों को बहुत अच्छी लगती है।
रुक्मिणी- ठीक कहती है भूंगी, खिलाना तो बस मां ही जानती है।
निर्मला को ऐसा मालूम हुआ कि घर का कोई आदमी उसके आने से खुश नहीं। मुंशीजी ने खुशी तो बहुत दिखाई, पर हृदयगत चिनता को न छिपा सके। बच्ची का नाम सुधा ने आशा रख दिया था। वह आशा की मूर्ति-सी थी भी। देखकर सारी चिन्ता भाग जाती थी। मुंशीजी ने उसे गोद में लेना चाहा, तो रोने लगी, दौड़कर मां से लिपट गयी, मानो पिता को पहचानती ही नहीं। मुंशीजी ने मिठाइयों से उसे परचाना चाहा। घर में कोई नौकर तो था नहीं, जाकर सियाराम से दो आने की मिठाइयां लाने को कहा।
जियराम भी बैठा हुआ था। बोल उठा- हम लोगों के लिए तो कभी मिठाइयां नहीं आतीं।
मंशीजी ने झुंझलाकर कहा- तुम लोग बच्चे नहीं हो।
जियाराम- और क्या बूढ़े हैं? मिठाइयां मंगवाकर रख दीजिए, तो मालूम हो कि बच्चे हैं या बूढ़े। निकालिए चार आना और आशा के बदौलत हमारे नसीब भी जागें।
मुंशीजी- मेरे पास इस वक्त पैसे नहीं है। जाओ  सिया, जल्द जाना।
जियाराम- सिया नहीं जायेगा। किसी का गुलाम नहीं है। आशा अपने बाप की बेटी है, तो वह भी अपने बाप का बेटा है।
मुंशीजी- क्या फजूज की बातें करते हो। नन्हीं-सी बच्ची की बराबरी करते तुम्हें शर्म नही आती? जाओ सियाराम, ये पैसे लो।
जियाराम- मत जाना सिया! तुम किसी के नौकर नहीं हो।
सिया बड़ी दुविधा में पड़ गया। किसका कहना माने? अन्त में उसने जियाराम का कहना मानने का निश्चय किया। बाप ज्यादा-से-ज्यादा घुड़क देंगे, जिया तो मारेगा, फिर वह किसके पास फरियाद लेकर जायेगा। बोला- मैं न जाऊंगा।
मुंशीजी ने धमकाकर कहा- अच्छा, तो मेरे पास फिर कोई चीज मांगने मत आना।
मुंशीजी खुद बाजार चले गये और एक रुपये की मिठाई लेकर लौटे। दो आने की मिठाई मांगते हुए उन्हें शर्म आयी। हलवाई उन्हें पहचानता था। दिल में क्या कहेगा?
मिठाई लिए हुए मुंशीजी अन्दर चले गये। सियाराम ने मिठाई का बड़ा-सा दोना देखा, तो बाप का कहना न मानने का उसे दुख हुआ। अब वह किस मुंह से मिठाई लेने अन्द जायेगा। बड़ी भूल हुई। वह मन-ही-मन जियाराम को चोटों की चोट और मिठाई की मिठास में तुलना करने लगा।
सहसा भूंगी ने दो तश्तरियां दोनो के सामने लाकर रख दीं। जियाराम ने  बिगड़कर कहा- इसे उठा ले जा!
भूंगी- काहे को बिगड़ता हो बाबू क्या मिठाई अच्छी नहीं लगती?
जियाराम- मिठाई आशा के लिए आयी है, हमारे लिए नहीं आयी? ले जा,  नहीं तो सड़क पर फेंक दूंगा। हम तो पैसे-पैसे के लिए रटते रहते ह। औ यहां रुपये की मिठाई आती है।
भूंगी- तुम ले लो सिया बाबू, यह न लेंगे न सहीं।
सियाराम ने डरते-डरते हाथ बढ़ाया था कि जियाराम ने डांटकर कहा- मत छूना मिठाई, नहीं तो हाथ तोड़कर रख दूंगा। लालची कहीं का!
सियाराम यह धुड़की सुनकर सहम उठा, मिठाई खाने की हिम्मत न पड़ी। निर्मला ने यह कथा सुनी, तो दोनों लड़कों को मनाने चली। मुंशजी ने कड़ी कसम रख दी।
निर्मला- आप समझते नहीं है। यह सारा गुस्सा मुझ पर है।
मुंशीजी- गुस्ताख हो गया है। इस खयाल से कोई सख्ती नहीं करता कि लोग कहेंगे, बिना मां के बच्चों को सताते हैं, नहीं तो सारी शरारत घड़ी भर में निकाल दूं।
निर्मला- इसी बदनामी का तो मुझे डर है।

 

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