मुंशी प्रेमचंद - निर्मला

premchand nirmla premchand hindi novel

निर्मला

उन्नीस

पेज- 61

जियाराम- चोरी नहीं है! आप ही को कोई दूध लाते देख ले, तो आपको शर्म न आयेगी।
मुंशीजी- बिल्कुल नहीं। मैंने तो इन्हीं हाथों से पानी खींचा है, अनाज की गठरियां लाया हूं। मेरे बाप लखपति नहीं थे।
जियाराम-मेरे बाप तो गरीब नहीं, मैं क्यों दूध दुहाने जाऊं? आखिर आपने कहारों को क्यों जवाब दे दिया?
मंशीजी- क्या तुम्हें इतना भी नहीं सूझता कि मेरी आमदनी अब पहली सी नहीं रही इतने नादान तो नहीं हो?
जियाराम- आखिर आपकी आमदनी क्यों कम हो गयी?
मुंशीजी- जब तुम्हें अकल ही नहीं है, तो क्या समझाऊं। यहां जिन्दगी से तंगे आ गया हूं, मुकदमें कौन ले और ले भी तो तैयार कौन करे? वह दिल ही नहीं रहा। अब तो जिंदगी के दिन पूरे कर रहा हूं। सारे अरमान लल्लू के साथ चले गये।
जियाराम- अपने ही हाथों न।
मुंशीजी ने चीखकर कहा- अरे अहमक! यह ईश्वर की मर्जी थी। अपने हाथों कोई अपना गला काटता है।
जियाराम- ईश्वर तो आपका विवाह करने न आया था।
मंशीजी अब जब्त न कर सके, लाल-लाल आंखें निकालक बोले-क्या तुम आज लड़ने के लिए कमर बांधकर आये हो? आखिर किस बिरते पर? मेरी रोटियां तो नहीं चलाते? जब इस काबिल हो जाना, मुझे उपदेश देना। तब मैं सुन लूंगा। अभी तुमको मुझे उपदेश देने का अधिकार नहीं है। कुछ दिनों अदब और तमीज़ सीखो। तुम मेरे सलाहकार नहीं हो कि मैं जो काम करुं, उसमें तुमसे सलाह लूं। मेरी पैदा की हुई दौलत है, उसे जैसे चाहूं खर्च कर सकता हूं। तुमको जबान खोलने का भी हक नहीं है। अगर फिर तुमने मुझसे बेअदबी की, तो नतीजा बुरा होगा। जब मंसाराम ऐसा रत्न खोकर मरे प्राण न निकले, तो तुम्हारे बगैर मैं मर न जाऊंगा, समझ गये?
यह कड़ी फटकार पाकर भी जियाराम वहां से न टला। नि:शंक भाव से बोला-तो आप क्या चाहते हैं कि हमें चाहे कितनी ही तकलीफ हो मुंह न खोले? मुझसे तो यह न होगा। भाई साहब को अदब और तमीज का जो इनाम मिला, उसकी मुझे भूख नहीं। मुझमें जहर खाकर प्राण देने की हिम्मत नहीं। ऐसे अदब को दूर से दंडवत करता हूं।
मुंशीजी- तुम्हें ऐसी बातें करते हुए शर्म नहीं आती?
जियाराम- लड़के अपने बुजुर्गों ही की नकल करते हैं।
मुंशीजी का क्रोध शान्त हो गया। जियाराम पर उसका कुछ भी असर न होगा, इसका उन्हें यकीन हो गया। उठकर टहलने चले गये। आज उन्हें सूचना मिल गयी के इस घर का शीघ्र ही सर्वनाश होने वाला हैं।
उस दिन से पिता और पुत्र मे किसी न किसी बात पर रोज ही एक झपट हो जाती है। मुंशीजी ज्यों-त्यों तरह देते थे, जियाराम और भी शेर होता जाता था। एक दिन जियाराम ने रुक्मिणी से यहां तक कह डाला- बाप हैं, यह समझकर छोड़ देता हूं, नहीं तो मेरे ऐसे-ऐसे साथी हैं कि चाहूं तो भरे बाजार मे पिटवा दूं। रुक्मिणी ने मुंशीजी से कह दिया। मुंशीजी ने प्रकट रुप से तो बेपरवाही ही दिखायी, पर उनके मन में शंका समा गया। शाम को सैर करना छोड़ दिया। यह नयी चिन्ता सवार हो गयी। इसी भय से निर्मला को भी न लाते थे कि शैतान उसके साथ भी यही बर्ताव करेगा। जियाराम एक बार दबी जबान में कह भी चुका था- देखूं, अबकी कैसे इस घर में आती है? मुंशीजी भी खूब समझ गये थे कि मैं इसका कुछ भी नहीं कर सकता। कोई बाहर का आदमी होता, तो उसे पुलिस  और कानून के शिंजे में कसते। अपने लड़के को क्या करें? सच कहा है- आदमी हारता है, तो अपने लड़कों ही से।

 

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