मुंशी प्रेमचंद - निर्मला

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निर्मला

चौदह

पेज- 46

साधु-तुम आज उनसे खूब जोर देकर कहना कि कहीं जलवायु बदलने चाहिए। दो चार महीने बाहर रहने से बहुत सी बातें भूल जायेंगी। मैं तो समझती हूं,शायद मकान बदलने से भी उनका शोक कुछ कम हो जायेगा। तुम कहीं बाहर जा भी न सकोगी। यह कौन-सा महीना है?
निर्मला- आठवां महीना बीत रहा है। यह चिन्ता तो मुझे और भी मारे डालती है। मैंने तो इसके लिए ईश्चर से कभी प्रार्थन न की थी। यह बला मेरे सिर न जाने क्यों मढ़ दी? मैं बड़ी अभागिनी हूं, बहिन, विवाह के एक महीने पहले पिताजी का देहान्ता हो गया। उनके मरते ही मेरे सिर शनीचर सवार हुए। जहां पहले विवाह की बातचीत पक्की हुई थी, उन लोगों ने आंखें फेर लीं। बेचारी अम्मां को हारकर मेरा विवाह यहां करना पड़ा। अब छोटी बहिन का विवाह होने वाला है। देखें, उसकी नाव किस घाट जाती है!
सुधा- जहां पहले विवाह की बातचीत हुई थी, उन लोगों ने इन्कार क्यों कर दिया?
निर्मला- यह तो वे ही जानें। पिताजी न रहे, तो सोने की गठरी कौन देता?
सुधा- यह ता नीचता है। कहां के रहने वाले थे?
निर्मला- लखनऊ के। नाम तो याद नहीं, आबकारी के कोई बड़े अफसर थे।
सुधा ने गम्भीरा भाव से पूछा- और उनका लड़का क्या करता था?
निर्मला- कुछ नहीं, कहीं पढ़ता था, पर बड़ा होनहार था।
सुधा ने सिर नीचा करके कहा- उसने अपने पिता से कुछ न कहा था? वह तो जवान था, अपने बाप को दबा न सकता था?
निर्मला- अब यह मैं क्या जानूं बहिन? सोने की गठरी किसे प्यारी नहीं होती? जो पण्डित मेरे यहां से सन्देश लेकर गया था, उसने तो कहा था कि लड़का ही इन्कार कर रहा है। लड़के की मां अलबत्ता देवी थी। उसने पुत्र और पति दोनों ही को समझाया, पर उसकी कुछ न चली।
सुधा- मैं तो उस लड़के को पाती, तो खूब आड़े हाथों लेती।
निर्मला- मरे भाग्य में जो लिखा था, वह हो चुका। बेचारी कृष्णा पर न जाने क्या बीतेगी?
संध्या समय निर्मला ने जाने के बाद जब डॉक्टर साहब बाहर से आये, तो सुधा ने कहा-क्यों जी, तुम उस आदमी का क्या कहोगे, जो एक जगह विवाह ठीक कर लेने बाद फिर लोभवश किसी दूसरी जगह?
डॉक्टर सिन्हा ने स्त्री की ओर कुतूहल से देखकर कहा- ऐसा नहीं करना चाहिए, और क्या?
सुधा- यह क्यों नहीं कहते कि ये घोर नीचता है, पहले सिरे का कमीनापन है!
सिन्हा- हां, यह कहने में भी मुझे इन्कार नहीं।
सुधा- किसका अपराध बड़ा है? वर का या वर के पिता का?
सिन्हा की समझ में अभी तक नहीं आया कि सुधा के इन प्रश्नों का आशय क्या है? विस्मय से बोले- जैसी स्थिति हो अगर वह पिता क अधीन हो, तो पिता का ही अपराध समझो।
सुधा- अधीन होने पर भी क्या जवान आदमी का अपना कोई कर्त्तव्य  नहीं है? अगर उसे अपने लिए नये कोट की जरुरत हो, तो वह पिता के विराध करने पर भी उसे रो-धोकर बनवा लेता है। क्या ऐसे महत्तव के विषय में वह अपनी आवाज पिता के कानों तक नहीं पहुंचा सकता? यह कहो कि वह और उसका पिता दोनों अपराधी हैं, परन्तु वर अधिक। बूढ़ा आदमी सोचता है- मुझे तो सारा खर्च संभालना पड़ेगा, कन्या पक्ष से जितना ऐंठ सकूं, उतना ही अच्छा। मगेर वर का धर्म है कि यदि वह स्वार्थ के हाथों बिलकुल बिक नहीं गया है, तो अपने आत्मबल का परिचय दे। अगर वह ऐसा नहीं करता, तो मैं कहूंगी कि वह लोभी है और कायर भी। दुर्भाग्यवश ऐसा ही एक प्राणी मेरा पति है और मेरी समझ में नहीं आता कि किन शब्दों में उसका तिरस्कार करुं!

 

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