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हिन्दी के कवि

ठाकुर (बुंदेलखंड)

(1763-1824 ई.)

ठाकुर के पिता का नाम गुलाबराय था। ये बुंदेलखंड के निवासी कायस्थ घराने के थे। ठाकुर को जैतपुर, बिजावर और बांदा नरेशों से धन तथा सम्मान प्राप्त हुआ। ठाकुर प्रेम और शृंगार के कवि हैं। स्पष्टवादिता एवं स्वाभाविकता इनकी कविता का मुख्य गुण है। भाषा बोलचाल की है, जिसमें मुहावरों का पुट है। ये रीतिकाल के 'मधुर कवि कहलाते हैं। लाला भगवानदीन ने इनकी रचनाओं का संग्रह 'ठाकुर-ठसक के नाम से प्रकाशित किया है।

पद

दस बार, बीस बार, बरजि दई है जाहि,
एते पै न मानै जो तौ, जरन बरन देव।

कैसो कहा कीजै, कछू आपनो करो न होय,
जाके जैसे दिन, ताहि तैसेई भरन देव॥

'ठाकुर कहत, मन आपनो मगन राखौ,
प्रेम निहसंक, रस रंग बिहरन देव।

बिधि के बनाए जीव जेते हैं, जहां के तहां,
खेलत फिरत, तिन्हैं खेलन फिरन देव॥

मेवा घनी बई काबुल में, बिंदराबन आनि करील लगाए
राधिका सी सुरबाम बिहाइ कै, कूबरी संग सनेह रचाए।

मेवा तजी दुरजोधन की, बिदुराइन के घर छोकल खाए।
'ठाकुर ठाकुर की का कहौं, सदा ठाकुर बावरे होतहिं आए॥

वा निरमोहिनि, रूप की रासि, जऊ उर हेतु न ठानति ह्वैहै।
बारहिं बार बिलोकि घरी घरी सूरति तो पहचानति ह्वैहै॥
'ठाकुर या मन की परतीति है, जो पै सनेह न मानति ह्वैहै।
आवत हैं नित मेरे लिए, इतनो तो बिसेष कै जानति ह्वैहै॥

हम एक कुराह चलीं तौ चलीं, हटकौ इन्हैं ए ना कुराह चलैं।
इहि तौ बलि आपुनौ सूझती हैं, प्रन पालिए सोई, जो पालैं पलै॥
कवि 'ठाकुर प्रीति करी है गुपाल सों, टेर कहौं, सुनौ ऊंचे गलै।
हमैं नीकी लगी सो करी हमनै, तुम्हैं नीकी लगौ न लगौ तो भलै॥

कानन दूसरो नाम सुनै नहीं, एक ही रंग रंग्यो यह डोरो।
धोखेहु दूसरो नाम क, रसना मुख काहिलाहल बोरो॥
'ठाकुर चित्त की वृत्ति यही, हम कैसें टेक तजैं नहिं भोरो।
बावरी वे अंखियां जरि जांहिं, जो सांवरो छवि निहारतिं गोरो॥

वह कंज सो कोमल, अंग गुपाल को, सोऊ सबै पुनि जानति हौ।
बलि नेक रुखाई धरे कुम्हलात, इतौऊ नहीं पहिचानति हौ॥
कवि 'ठाकुर या कर जोरि कह्यो, इतने पै मनै नहिं मानति हौ।
दृग बान ये भौंह कमान कहौ, अब कान लौं कौन पै तानति हौ॥

रोज न आइये जो मन मोहन, तौ यह नेक मतौ सुन लीजिये।
प्रान हमारे तुम्हारे अधीन, तुम्हैं बिन देखे सु कैसे कै जीजिये॥
'ठाकुर लालन प्यारे सुनौ, बिनती इतनी पै अहो चित दीजिये।
दूसरे, तीसरे, पांचयें, आठयें तो भला आइबो कीजिये॥

सुरझी नहिं केतो उपाइ कियौ, उरझी हुती घूंघट खोलन पै।
अधरान पै नेक खगी ही हुती, अटकी हुती माधुरी बोलन पै॥
कवि 'ठाकुर लोचन नासिका पै, मंडराइ रही हुती डोलन पै।
ठहरै नहिं डीठि, फिरै ठठकी, इन गोरे कपोलन गोलन पै॥

तन को तरसाइबो कौने बद्यौ, मन तौ मिलिगो पै मिलै जल जैसो।
उनसैं अब कौन दुराव रह्यो, जिनके उर मध्य करो सुख ऐसो॥
'ठाकुर या निरधार सुनौ, तुम्हैं कौन सुभाव परयो है अनैसो।
प्रानपियारी सुनौ चित दै, हिरदै बसि घूंघट घालिबो कैसो॥

लगी अंतर मैं, करै बाहिर को, बिन जाहिर, कोऊ ना मानतु है।
दुख औ सुख, हानि औ लाभ सबै, घर की कोऊ बाहर भानतु है॥
कवि 'ठाकुर आपनी चातुरी सों, सबही सब भांति बखानतु है।
पर बीर, मिले बिछुरे की बिथा, मिलिकै बिछुरै सोई जानतु है॥

ठारहे घनश्याम उतै, इत मैं पुनि आनि अटा चझिांकी।
जानति हौ तुमं ब्रज रीति, न प्रीति रहै कबं पल ढांकी॥
'ठाकुर कैसें भूलत नाहिनै, ऐसी अरी वा बिलोकनि बांकी।
भावत ना छिन भौन को बैठिबो, घूंघट कौन को लाज कहां की॥

बरुनीन मैं नैन झुकैं उझकैं, मनौ खंजन मीन के जाले परे।
दिन औधि के कैसे गनौं सजनी, अंगुरीनि के पोरन छाले परे॥
कवि 'ठाकुर ऐसी कहा कहिये, निज प्रीति किये के कसाले परे।

जिन लालन चाह करी इतनी, तिन्हैं देखिबे के अब लाले परे॥
अब का समुझावती को समुझै, बदनामी के बीजन ब्वै चुकी री।
इतनों बिचार करो तो सखी, यह लाज की साज तो ध्वै चुकी री॥
कवि 'ठाकुर काम न या सबको, करि प्रीत पतीब्रत ख्वै चुकी री।
नेकी बदी जो लिखी हुती भाल में, होनी हुती सु तो ह्वै चुकी री॥

 

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