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हिन्दी के कवि

रामावतार त्यागी

(1925-1982 ई.)

रामावतार त्यागी का जन्म मुरादाबाद जिले के कुरकावली ग्राम में ब्राह्मण परिवार में हुआ। घर की रूढिवादिता से विद्रोह कर त्यागी ने अत्यंत विषम परिस्थितियों में शिक्षा प्राप्त की। अंत में दिल्ली आकर इन्होंने वियोगी हरि और महावीर अधिकारी के साथ सम्पादन कार्य किया। त्यागी पीडा के कवि हैं। इनकी शब्द-योजना सरल तथा अनुभूति गहरी है। 'नया खून तथा 'आठवां स्वर इनके कविता संग्रह हैं। 'आठवां स्वर पुस्तक पुरस्कृत है।

कलाकार का गीत
इस सदन में मैं अकेला ही दिया हूँ
मत बुझाओ!
जब मिलेगी रोशनी मुझसे मिलेगी!
पांव तो मेरे थकन ने छील डाले,
अब विचारों के सहारे चल रहा हूँ,
आंसुओं से जन्म दे-देकर हंसी को,
एक मंदिर के दीए-सा जल रहा हूँ,
मैं जहां धर दूं कदम, वह राजपथ है
मत मिटाओ!
पांव मेरे, देखकर दुनिया चलेगी!
बेबसी, मेरे अधर इतने न खोलो,
जो कि अपना मोल बतलाता फिरूं मैं,
इस कदर नफरत न बरसाओ नयन से,
प्यार को हर गांव दफनाता फिरूं मैं,
एक अंगारा गरम मैं ही बचा हूँ-
मत बुझाओ!
जब जलेगी, आरती मुझसे जलेगी!
जी रहे हो जिस कला का नाम लेकर
कुछ पता भी है कि वह कैसे बची है
सभ्यता की जिस अटारी पर खडे हो,
वह हमीं बदनाम लोगों ने रची है,
मैं बहारों का अकेला वंशधर हूँ
मत सुखाओ!
मैं खिलूंगा तब नई बगिया खिलेगी!
शाम ने सबके मुखों पर रात मल दी,
मैं जला हूँ, तो सुबह लाकर बुझूंगा,
जिंदगी सारी गुनाहों में बिताकर,
जब मरूंगा, देवता बनकर पुजूंगा,
आंसुओं को देखकर मेरी हंसी तुम-
मत उडाओ!
मैं न रोऊं, तो शिला कैसे गलेगी!
इस सदन में मैं अकेला ही दीया हूँ,
मत बुझाओ!
जब मिलेगी रोशनी मुझसे मिलेगी!

सभाएं बंद कर
जुलूसों और नारों से,
प्रदर्शन या प्रचारों से,
न कोई देश जीता है,
सभाएं बंद कर, चल खेत में या कारखानों में।

सिपाही के लिए कपडे, जवानों के लिए रोटी
सभाएं बुन नहीं सकतीं, उगा सकते नहीं नारे,
पडा है देश पर संकट, लगी है जान की बाजी,
यही तो वक्त है कुछ काम कर, कुछ काम कर प्यारे,
विवादों को उठाने से,
गडे मुर्दे जिलाने से,
न कोई देश जीता है,
सभाएं बंद कर, चल खेत में या कारखानों में।
गरजता है अगर अम्बर, लरजती है अगर धरती,
मगर खाली नहीं बैठो, इसी में देश की जय है,
हजारों बिजलियां टूटें, हजारों आंधियां आएं,
कुदाली को रहो थामे, तुम्हारा ही हिमालय है,
निरी बातें बनाने से,
महज बैठक जमाने से,
न कोई देश जीता है,
सभाएं बंद कर, चल खेत में या कारखानों में।

एक भी आंसू न कर बेकार
एक भी आंसू न कर बेकार-
जाने कब समंदर मांगने आ जाए!
पास प्यासे के कुआं आता नहीं है,
यह कहावत है, अमरवाणी नहीं है,
और जिसके पास देने को न कुछ भी
एक भी ऐसा यहां प्राणी नहीं है,
कर स्वयं हर गीत कर शृंगार
जाने देवता को कौन-सा भा जाए!
चोट खाकर टूटते हैं सिर्फ दर्पण
किंतु आकृतियां कभी टूटी नहीं है,
आदमी से रूठ जाता है सभी कुछ-
पर समस्याएं कभी रूठी नहीं है,

हर छलकते अश्रु को कर प्यार-
जाने आत्मा को कौन नहला जाए!

व्यर्थ है करना खुशामद रास्तों की,
काम अपने पांव ही आते सफर में,
वह न ईश्वर के उठाए भी उठेगा-
जो स्वयं गिर जाए अपनी ही नजर में,

हर लहर का कर प्रणय स्वीकार-
जाने कौन तट के पास पहुंचा जाए!

 

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