मोहनदास करमचंद गाँधी की आत्मकथा

सत्य के प्रयोग

पहला भाग

दुःखद प्रसंग - 2

 

निश्चित दिन आया । अपनी स्थिति का सम्पूर्ण वर्णन करना मेरे लिए कठिन हैं । एक तरफ सुधार का उत्साह था, जीवन में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन करने का कुतूहल था, और दूसरी ओर चोर की तरह छिपकर काम करने की शरम थी । मुझे याद नहीं पड़ता कि इसमें मुख्य वस्तु क्या थी । हम नदीं की तरफ एकान्त की खोज में चलें । दूर जाकर ऐसा कोना खोजा, जहाँ कोई देख न सके और कभी न देखी हुई वस्तु -- माँस -- देखी ! साथ में भटियार खाने की डबल रोटी थी । दोनों में से एक भी चीज मुझे भाती नहीं थी । माँस चमड़े-जैसा लगता था । खाना असम्भव हो गया । मुझे कै होने लगी । खाना छोड़ देना पड़ा । मेरी वह रात बहुत बुरी बीती । नींद नहीं आई । सपने में ऐसा भास होता था , मानो शरीर के अन्दर बकरा जिन्दा हो और रो रहा हैं । मैं चौंक उठता, पछताता और फिर सोचता कि मुझे तो माँसाहार करना ही हैं, हिम्मत नहीं हारनी हैं ! मित्र भी हार खाने वाले नहीं थे । उन्होंने अब माँस को अलग-अलग ढंग से पकाने, सजाने और ढंकने का प्रबन्ध किया ।

नदी किनारे ले जाने के बदले किसी बावरची के साथ बातचीत करके छिपे-छिपे एक सरकारी डाक-बंगले पर ले जाने की व्यवस्था की और वहाँ कुर्सी, मेज बगैरा सामान के प्रलोभन में मुझे डाला । इसका असर हुआ । डबल रोटी की नफरत कुछ कम पड़ी, बकरे की दया छूटी और माँस का तो कह नहीं सकता , पर माँसवाले पदार्थों में स्वाद आने लगा । इस तरह एक साल बीता होगा और इस बीच पाँच-छह बार माँस खाने को मिला होगा , क्योंकि डाक-बंगला सदा सुलभ न रहता था और माँस के स्वादिष्ट माने जाने वाले बढ़िया पदार्थ भी सदा तैयार नहीं हो सकते थे । फिर ऐसे भोजनो पर पैसा भी खर्च होता था । मेरे पास तो फूटी कौड़ी भी नहीं थी, इसलिए मैं कुछ दे नहीं सकता था । इस खर्च की व्यवस्था उन मित्रो को ही करनी होती थी, कैसे व्यवस्था की, इसका मुझे आज तक पता नहीं हैं । उनका इरादा को मुझे माँस की आदत लगा देने का -- भ्रष्ट करने का -- था, इसळिए वे अपना पैसा खर्च करते थे । पर उनके पास भी कोई अखूट खजाना नहीं था, इसलिए ऐसी दावते कभी-कभी ही हो सकती थी ।

जब-जब ऐसा भोजन मिलता, तब-तब घर पर तो भोजन हो ही नहीं सकता था । जब माताजी भोजन के लिए बुलाती, तब 'आज भूख नहीं हैं, खाना हजम नहीं हुआ हैं ' ऐसे बहाने बनाने पड़ते थे । ऐसा कहते समय हर बार मुझे भारी आघात पहुँचता था । यह झूठ, सो भी माँ के सामने ! और अगर माता-पिता को पता चले कि लड़के माँसाहारी हो गये हैं तब तो उन पर बिजली ही टूट पड़ेगी । ये विचार मेरे दिल को कुरेदते रहते थे, इसलिए मैंने निश्चय किया: 'माँस खाना आवश्यक हैं, उसका प्रचार करके हम हिन्दुस्तान को सुधारेंगे ; पर माता-पिता को धोखा देना और झूठ बोलना तो माँस न खाने से भी बुरा हैं । इसलिए माता-पिता के जीते जी माँस नहीं खाना चाहिये । उनकी मृत्यु के बाद, स्वतंत्र होने पर खुले तौर से माँस खाना चाहिये और जब तक वह समय न आवे , तब तक माँसाहार का त्याग करना चाहिये । ' अपना यह निश्चय मैने मित्र को जता दिया, और तब से माँसाहार जो छूटा, सो सदा के छूटा । माता-पिता कभी यह जान ही न पाये की उनके दो पुत्र माँसाहार कर चुके हैं ।

माता-पिता को धोखा न देने के शुभ विचार से मैने माँसाहार छोड़ा, पर वह मित्रता नहीँ छोड़ी । मैं मित्र को सुधारने चला था , पर खुद ही गिरा, और गिरावट का मुझे होश तक न रहा ।

इसी सोहब्बत के कारण मैं व्यभिचार में भी फँस जाता । एक बार मेरे ये मित्र मुझे वेश्याओं की बस्ती में ले गये । वहाँ मुझे योग्य सूचनायें देकर एक स्त्री के मकान में भेजा । मुझे उसे पैसे वगैरा कुछ देना नहीं था । हिसाब हो चुका था । मुझे तो सिर्फ दिल-बहलाव की बातें करनी थी । मैं घर में घुस तो गया, पर जिसे ईश्वर बचाना हैं, वह गिरने की इच्छा रखते हुए भी पवित्र रह सकता हैं । उस कोठरी में मैं तो अँधा बन गया । मुझे बोलने का भी होश न रहा । मारे शरम के सन्नाटे में आकर उस औरत के पास खटिया पर बैठा, पर मुँह से बोल न निकल सका । औरत ने गुस्से में आकर मुझे दो-चार खरी-खोटी सुनायी और दरवाजे की राह दिखायी ।

उस समय तो मुझे जान पड़ा कि मेरी मर्दानगी को बट्टा लगा और मैने चाहा कि घरती जगह दे तो मैं उसमे समा जाऊँ । पर इस तरह बचने के लिए मैंने सदा ही भगवान का आभार माना हैं । मेरे जीवन में ऐसे ही दुसरे चार प्रसंग और आये हैं । कहना होगा कि उनमें से अनेकों में, अपने प्रयत्न के बिना, केवल परिस्थिति के कारण मैं बचा हूँ । विशुद्ध दृष्टि से तो इल प्रसंगों में मेरा पतन ही माना जायेगा । चूँकि विषय की इच्छा की, इसलिए मैं उसे भोग ही चुका । फिर भी लौकिक दृष्टि से, इच्छा करने पर भी जो प्रत्यक्ष कर्म से बचता हैं, उसे हम बचा हुआ मानते हैं ; और इन प्रसंगो में मैं इसी तरह, इतनी ही हद तक, बचा हुआ माना जाऊँगा । फिर कुछ काम ऐसे हैं, जिन्हे करने से बचना व्यक्ति के लिए और उसके संपर्क में आने वालों के लिए बहुत लाभदायक होता हैं, और जब विचार शुद्धि हो जाती हैं तब उस कार्य में से बच जाने कि लिए वब ईश्वर का अनुगृहित होता हैं । जिस तरह हम यह अनुभव करते है कि पतल से बचने का प्रयत्न करते हूए भी मनुष्य पतित बनता हैं, उसी तरह यह भी एक अमुभव-सिद्ध बात हैं कि गिरना चाहते हुए भी अनेक संयोगों के कारण मनुष्य गिरने से बच जाता हैं । इसमें पुरुषार्थ कहाँ हैं, दैव कहाँ हैं, अय़वा किन नियमों के वश होकर मनुष्य आखिर गिरता या बचता हैं, यो सारे गूढ़ प्रश्न हैं । इसका हल आज तक हुआ नहीं और कहना कठिन हैं कि अंतिम निर्णय कभी हो सकेगा या नहीं ।

पर हम आगे बढ़े । मुझे अभी तक इस बात का होश नहीं हुआ कि इन मित्र की मित्रता अनिष्ट हैं । वैसा होने से पहले मुझे अभी कुछ और कड़वे अनुभव प्राफ्त करने थे । इसका बोध तो मुझे तभी हुआ जब मैंने उनके अकल्पित दोषों का प्रत्यक्ष दर्शन किया । लेकिन मैं यथा संभव समय के क्रम के अनुसार अपने अनुभव लिख रहा हूँ, इसलिए दुसरे अनुभव आगें आवेंगे।

इस समय की एक बात यहीं कहनी होगी । हम दम्पती के बीच जो जो कुछ मतभेद या कलह होता, उसका कारण यह मित्रता भी थी । मैं ऊपर बता चुका हूँ कि मैं जैसा प्रेमी था वैसा ही वहमी पति था । मेरे वहम को बढाने वाली यह मित्रता थी, क्योकि मित्र की सच्चाई के बारे में मुझे कोई सन्देह था ही नहीं । इन मित्र की बातों मे आकर मैंने अपनी धर्मपत्नी को कितने ही कष्ट पहुँचाये । इस हिंसा के लिए मैने अपने को कभी माफ नहीं किया हैं । ऐसे दुःख हिन्दू स्त्री ही सहन करती हैं , और इस कारण मैने स्त्री को सदा सहनशीलता की मूर्ति के रूप में देखा हैं । नौकर पर झूठा शक किया जाय तो वह नौकरी छोड़ देता हैं , पुत्र पर ऐसा शक हो तो वह पिता का घर छोड़ देता हैं , मित्रों के बीच शक पैदा हो तो मित्रता टूट जाती हैं, स्त्री को पति पर शक हो तो वह मन मसोस कर बैठी रहती हैं , पर अगर पति पत्नी पर शक करे तो पत्नी बेचारी का भाग्य ही फूट जाता हैं । वह कहाँ जाये ? उच्च माने जाने वाले वर्ण की हिन्दू स्त्री अदालत में जाकर बँधी हुई गाँठ को कटवा भी नहीं सकती, ऐसा एक तरफा न्याय उसके लिए रखा गया हैं । इस तरह का न्याय मैने दिया, इसके दुःख को मै कभी नहीं भूल सकता । इस संदेह की जड़ तो तभी कटी जब मुझे अहिंसा का सूक्ष्म ज्ञान हुआ , यानि जब मैं ब्रह्मचर्य की महिमा को समझा और यह समझा कि पत्नी पति की दासी नहीं, पर उलकी सहचारिणी हैं, सहधर्मिणी हैं , दोनो एक दूसरे के सुख-दुःख के समान साझेदार हैं , और भला-बुरा करने की जितनी स्वतंत्रता पति को हैं उतनी ही पत्नी को हैं । संदेह के उस काल को जब मैं याद करती हूण तो मुझे अपनी मूर्खता और विषयान्ध निर्दयता पर क्रोध आता है और मित्रता- विषयक अपनी मूर्च्छा पर दया आती हैं ।

 

 

 

 

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