मोहनदास करमचंद गाँधी की आत्मकथा

सत्य के प्रयोग

पहला भाग

मेरी परेशानी

 

बारिस्टर कहलाना आसान मालूम हुआ , पर बारिस्टरी करना मुश्किल लगा । कानून पढ़े, पर वकालल करना न सीखा । कानून मे मैने कई धर्म-सिद्धान्त पढ़े, जो अच्छे लगे । पर यह समझ मे न आया कि इस पेशे मे उनका उपयोग कैसे किया जा सकेगा । 'अपनी सम्पत्ति का उपयोग तुम इस तरह करो कि जिससे दूसरे की सम्पत्ति को हानि न पहुँचे' यह एक धर्म-वचन हैं । पर मैं यह न समझ सका कि मुवक्किल के मामले में इसका उपयोग कैसे किया जा सकता था । जिस मुकदमों में इस सिद्धान्त का उपयोग हुआ था, उन्हें मैं पढ़ गया । पर उससे मुझे इस सिद्धान्त का उपयोग करने की युक्ति मालूम न हुई ।

इसके अलावा, पढ़े हुए कानूनों में हिन्दुस्तान के कानून का तो नाम तक न था । मै यह जान ही न पाया कि हिन्दु शास्त्र और इस्लामी कानून कैसे हैं । न मै अर्जी-दावा तैयार करना सीखा। मैं बहुत परेशान हुआ । फीरोजशाह मेहता का नाम मैने सुना था । वे अदालतों मे सिंह की तरह गर्जना करते थे । विलायत में उन्होने यह कला कैसे सीखी होगी ? उनके जितनी होशियारी तो इस जीवन मे आ नही सकती । पर एक वकील के नाते आजीविका प्राप्त करने की शक्ति पाने के विषय में भी मेरे मन मे बड़ी शंका उत्पन्न हो गयी ।

यह उलझन उसी समय से चल रही थी, जब मैं कानून का अध्ययन करने लगा था । मैने अपनी कठिनाईयाँ एक-दो मित्रो के सामने रखी । उन्होने सुझाया कि मैं नौरोजी की सलाह लूँ । यह तो मैं पहले ही लिख चुका हूँ कि दादा भाई के नाम एक पत्र मेरे पास था । उस पत्र का उपयोग मैंने देर से किया । ऐसे महान पुरुष से मिलने जाने का मुझे क्या अधिकार था ? कहीं उनका भाषण होता , तो मै सुनने जाता और एक कोने में बैटकर आँख और कान को तृप्त करके लौट आता । विद्यार्थियो से सम्पर्क रखने के लिए उन्होने एक मंडली की भी स्थापना की थी । मै उसमे जाता रहता था । विद्यार्थियो के प्रति दादाभाई की चिन्ता देखकर और उनके प्रति विद्यार्थियो का आदर देखकर मुझे आनन्द होता था । आखिर मैने उन्हें अपने पास का सिफारिशी पत्र देने की हिम्मत की । मै उनसे मिला । उन्होंने मुझसे कहा ,'तुम मुझ से मिलना चाहो और कोई सलहा लेना चाहो तो जरुर मिलना ।' पर मैने उन्हें कभी कोई कष्ट नहीं दिया । किसी भारी कठिनाई के सिवा उनका समय लेना मुझे पाप जान पड़ा । इसलिए उक्त मित्र की सलाह मान कर दादाभाई के सम्मुख अपनी कठिनाईयाँ रखने की मेरी हिम्मत न पड़ी ।

उन्हीं मित्र मे या किसी और ने मुझे सुझाया कि मैं मि. फ्रेडरिक पिंकट से मिलूँ । मि. पिंकट कंज्रवेटिव (अनुदार) दल के थे । पर हिन्दुस्तानियों के प्रति उनका प्रेम निर्मल और निःस्वार्थ था । कई विद्यार्थी उनसे सलाह लेते थे । अतएव उन्हें पत्र लिखकर मैने मिलने का समय माँगा । उन्होने समय दिया । मैं उनसे मिला । इस मुलाकात को मैं कभी भूल नहीं सका । वे मुझसे मित्र की तरह मिले । मेरी निराशा को तो उन्होने हँस कर ही उड़ा दिया । 'क्या तुम मानते हो कि सबके लिए फीरोजशाह मेहता बनना जरुरी हैं ? फीरोजशाह मेहता या बदरुद्दीन तैयबजी तो एक-दो ही होते हैं । तुम निश्चय समझो कि साधारण वकील बनने के लिए बहुत अधिक होशियारी की जरुरत नहीं होती । साधारण प्रामाणिकता और लगन से मनुष्य वकालत का पेशा आराम से चला सकता हैं । सब मुकदमे उलझनो वाले नही होते । अच्छा , तो यह बताओ कि तुम्हारा साधारण वाचन क्या है ?'

जब मैंने अपनी पढ़ी हुई पुस्तको की बात की तो मैंने देखा कि वे थोड़े निराश हुए । पर यह निराशा क्षणिक थी । तुरन्त ही उनके चेहरे पर हँसी छा गयी और वे बोले , 'अब मैं तुम्हारी मुश्किल को समझ गया हूँ । साधारण विषयों की तुम्हारी पढ़ाई का बहुत कम हैं । तुम्हें दुनिया का ज्ञान नही हैं । इसके बिना वकील का काम नही चल सकता । तुमने तो हिन्दुस्तान का इतिहास भी नहीं पढ़ा हैं । वकील को मनुष्य का स्वभाव का ज्ञान होना चाहिये । उसे चहेरा देखकर मनुष्य को परखना आना चाहिये । साथ ही हरएक हिन्दुस्तानी को हिन्दुस्तान के इतिहास का भी ज्ञान होना चाहिये । वकालत के साथ इसका कोई सम्बन्ध नही हैं , पर तुम्हे इसकी जानकारी होनी चाहिये । मै देख रहा हूँ कि तुमने के और मेलेसन की 1857 के गदर की किबात भी नहीँ पढ़ी हैं । उसे तो तुम फौरन पढ़ डालो और जिन दो पुस्तकों के नाम देता हूँ, उन्हे मनुष्य की परख के ख्याल से पढ़ जाना । ' यौ कहकर उन्होंने लेवेटर और शेमलपेनिक की मुख-सामुद्रिक विद्या (फीजियोग्नॉमी) विषयक पुस्तकों के नाम लिख दिये ।

मैने उन वयोवृद्ध मित्र का बहुत आभार माना । उनकी उपस्थिति मे तो मेरा भय क्षण भर के लिए दूर हो गया । पर बाहर निलकने के बाद तुरन्त ही मेरी घबराहट फिर शुरु हो गयी । चेहरा देखकर आदमी को परखने की बात को रटता हुआ और उन दो पुस्तकों का विचार करता हुआ मैं घर पहुँचा । दुसरे दिन लेवेटर की पुस्तक खरीदी । शेमलपेनिक की पुस्तक उस दुकान पर नहीं मिली । लेलेटर की पुस्तक पढ़ी, पर वह तो स्नेल से भी अधिक कठिन जान पड़ी । रस भी नहीं के बराबर ही मिला । शेक्सपियर के चेहरे का अध्ययन किया । पर लंदन की सडको पर चलने वाले शेक्सपियरों को पहचाने की कोई शक्ति तो मिली ही नही ।

लेवेटर की पुस्तक से मुझे कोई ज्ञान नही मिला । मि. पिंकट की सलाह का सीधा लाभ कम ही मिला , पर उनके स्नेह का बड़ा लाभ मिला । उनके हँसमुख और उदार चेहरे की याद बनी रही । मैने उनके इन वचनों पर श्रद्धा रखी कि वकालत करने के लिए फीरोजशाह महेता की होशियारी औऱ याददास्त की वगैरा की जरुरत नही हैं , प्रामाणिका और लगन से काम चल सकेगा । इन दो गुणो की पूंजी तो मेरे पास काफी मात्रा मे थी । इसलिए दिल मे कुछ आशा जागी ।

के और मेलेसन की पुस्तक विलायत मे पढ़ नही पाया । पर मौका मिलते ही उसे पढ डालने का निश्चय किया । यह इच्छा दक्षिण अफ्रीका मे पूरी हुई ।

इस प्रकार निराशा मे तनिक सी आशा का पटु लेकर मैं काँपते पैरो 'आसाम' जहाज से बम्बई के बन्दरगाह पर उतरा । उस समय बन्दरगाह में समुद्र क्षुब्ध था , इस कारण लांच (बडी नाव) में बैठकर किनार पर आना पड़ा ।

 

 

 

 

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