मोहनदास करमचंद गाँधी की आत्मकथा

सत्य के प्रयोग

पहला भाग

आखिर विलायत पहुँचा

 

जहाज में मुझे समुद्र का जरा भी कष्ट नहीं हुआ । पर जैसे-जैसे दिन बीतते जाते, वैसे-वैसे मैं अधिक परेशान होता जाता था । 'स्टुअर्ड' के साथ बातचीत करने में भी शरमाता था । अंग्रेजी में बात करने की मुझे आदत ही न थी । मजमुदार को छोड़कर दूसरे सब मुसाफिर अंग्रेज थे । मैं उनके साथ बोल न पाता था । वे मुझ से बोलने का प्रयत्न करते, तो मैं समझ न पाता, और समझ लेता तो जवाब क्या देना सो सूझता न था । बोलने से पहले हरएक वाक्य को जमाना पड़ता था । काँटे-चम्मच से खाना आता न था, और किस पदार्थ में माँस हैं, यह पूछने की हिम्मत नहीं होती थी । इसलिए मैं खाने की मेज पर तो कभी गया ही नहीं । अपनी कोठरी में ही खाता था । अपने साथ खास करके जो मिठाई वगैरा लाया था , उन्हीं से काम चलाया । मजमुदार को ते कोई संकोच न था । वे सबके साथ घुलमिल गये थे । डेक पर भी आजादी से जाते थे । मैं सारे दिन कोठरी में बैठा रहता था । कभी-कभार, जब डेक पर थोडे लोग होते , तो कुछ देर वहाँ जाकर बैठ लेता था। मजमुदार मुझे समझाते कि सब के साथ घुलो-मिलो आजादी से बातचीत करो; वे मुझ से यह भी कहते कि वकील की जीभ खूब चलनी चाहिये । वकील के नाते वे अपने अनुभव सुनाते और कहते कि अंग्रेजी हमारी भाषा नहीं हैं, उसमे गलतियाँ तो होगी ही, फिर भी खुलकर बोलते रहना चाहियें । पर मैं अपनी भीरुता छोड़ न पाता था ।

मुझ पर दया करके एक भले अंग्रेज नें मुझसे बातचीत शुरु की । वे उमर में बड़े थे । मैं क्या खाता हूँ, कौन हूँ, कहाँ जा रहा हूँ, किसी से बातचीत क्यो नहीं करता , आदि प्रश्न वे पूछते रहते । उन्होंने मुझे खाने की मेज पर जाने की सलाह दी । माँस न खाने के मेरे आग्रह की बात सुनकर वे हँसे और मुझ पर तरस खाकर बोले, 'यहाँ तो (पोर्टसईद पहुँचने से पहले तक) ठीक हैं, पर बिसके की खाड़ी में पहुँतने पर तुम्हें अपना विचार बदल लोगे । इंगलैंड में तो इतनी ठंड पड़ती हैं कि माँस खाये बिना चलता ही नहीँ ।'

मैने कहा, 'मैंन सुना हैं कि वहाँ लोग माँसाहार के बिना रह सकते हैं ।'

वे बोले, 'इसे गलत समझो। अपने परिचितों में मैं ऐसे किसी आदमी को नहीं जानता, जो माँस न खाता हो। सुनों, मैं शराब पीता हूँ, पर तुम्हें पीने के लिए नहीँ कह सकता । लेकिन मैं समझता हूँ कि तुम्हें माँस को खाना ही चाहिये। '

मैंने कहा, 'इस सलाह के लिए मैं आपका आभार मानता हूँ, पर माँस न खाने के लिए मैं अपनी माताजी से वचनबद्ध हूँ । इस कारण मैं माँस नहीँ खा सकता । अगर उसके बिना काम न चला तो मैं वापस हिन्दुस्तान चला जाऊँगा , पर माँस तो कभी न खाऊँगा ।'

बिस्के की खाड़ी आयी । वहाँ भी मुझे न तो माँस की जरुरत मालूम हूई और न मदिरा की । मुझसे कहा गया कि मैं माँस न खाने के प्रमाण पत्र इक्टठा कर लूँ । इसलिए इन अंग्रेज मित्र से मैने प्रमाण पत्र माँगा । उन्होंने खुशी-खुशी दे दिया । कुछ समय तक मैं उसे धन की तरह संभाले रहा । बाद में मुझे पता चला कि प्रमाण-पत्र तो माँस खाते हुए भी प्राप्त किये जा सकते है । इसलिए उनके बारे में मेरा मोह नष्ट हो गया । अगर मेरी बात पर भरोसा नहीं हैं तो ऐसे मामले में प्रमाण -पत्र दिखा कर मुझे क्या लाभ हो सकता हैं ?

दुःख-सुख सहते हुए यात्रा समाप्त करके हम साउदेम्प्टन बन्दरगाह पर पहुँचे । मुझे याद हैं कि उस दिन शनिवार था । जहाज पर मैं काली पोशाक पहनता था । मित्रों ने मेरे लिए सफेद फलालैन के कोट-पतलून भी बनवा दिये थे । उन्हें मैने विलायत में उतरते समय पहनने का विचार कर रखा था, यह समझकर कि सफेद कपड़े अधिक अच्छे लगेगे ! मैं फलालैन का सूट पहनकर उतरा । मैने वहाँ इस पोशाक में एक अपने को ही देखा । मेरी पेटियाँ और उनकी चाबियाँ तो ग्रिण्डले कम्पनी के एजेण्ट ले गये थे । सबकी तरह मुझे भी करना चाहिये, यह सोच कर मैं तो अपनी चाबियों भी दे दी थी ।

मेरे पास चार सिफारशी पत्र थे: डॉक्टर प्राणजीवन महेता के नाम, दलपतराम शुक्ल के नाम , प्रिंस रणजीतसिंह के नाम और दादाभाई नौरोजी का नाम । मैने साउदेम्प्टन से डॉक्टर महेता को एक तार भेजा था । जहाज में किसी ने सलाह दी थी कि विक्टोरिया होटल में ठहरना चाहियें । इस कारण मजमुदार और मैं उस होटल में पहुँचे । मैं अपनी सफेद पोशाक की शरम से गड़ा जा रहा था । तिस पर होटल में पहुँचने पर पता चला कि अगले दिन रविवार होने से ग्रिण्डले के यहाँ से सामान नहीं आयेगा । इससे मैं परेशान हुआ ।

सात-आठ बजे डॉक्टर महेता आये । उन्होने प्रेमभरा विनोद किया । मैंने अनजाने रेशमी रोओंवाली उनकी टोपी देखने के ख्याल से उठायी और उसपर उलटा हाथ फेरा । इससे टोपी के रोएं खड़े हो गये । डॉक्टर महेता ने देखा , मुझे तुरन्त ही रोका । पर अपराध तो हो चुका था । उनके रोकने का नतीजा तो यही निकल सकता था कि दुबारा वैसा अपराध न हो ।

समझियें कि यही से यूरोप के रीति-रिवाजों के सम्बन्ध में मेरी शिक्षा का श्रीगणेश हुआ । डॉक्टर महेता हँसते-हँसेते बहुत-सी बाते समझाते जाते थे । किसी की चीज छूनी चाहियें , किसी से जान-पहचान होने पर जो प्रश्न हिन्दुस्तान में यो ही पूछे जा सकते हैं , वे यहाँ नहीं पूछे जा सकते , बाते करते समय ऊँची आवाज से नहीं बोल सकते, हिन्दुस्तान में अंग्रेजो से बात करते समय 'सर' कहने का जो रिवाज हैं, वह यहाँ अनावश्यक हैं , 'सर' तो नौकर अपने मालिक से अथवा बड़े अफसर से कहता हैं । फिर उन्होंने होटल में रहने के खर्च की भी चर्चा की और सुझाया कि किसी निजी कुटुम्ब में रहने की जरुरत पड़ेगी । इस विषय में अधिक विचार सोमवार पर छोड़ा गया । कई सलाहें देकर डॉक्टर महेता बिदा हुए ।

होटल में आकर हम दोनों को यही लगा कि यहाँ कहाँ आ फँसे । होटल महँगा भी था । माल्टा से एक सिन्धी यात्री जहाज पर सवार हुए थे । मजमुदार उनसे अच्छे से घुलमिल गये थे । ये सिन्धी यात्री लंदन के अच्छे जानकार थे । उन्होंने हमारे लिए दो कमरे किराये पर लेने की जिम्मेदारी उठायी । हम सहमत हुए और सोमवार को जैसे ही सामान मिला, बिल चुका कर उक्त सिन्धी सज्जन द्वारा ठीक किये कमरों में हमने प्रवेश किया ।

मुझे याद हैं कि मेरे हिस्से का होटल का बिल लगभग तीन पौड़ का हुआ था । मैं तो चकित ही रह गया । तीन पौड देने पर भी भूखा रहा । होटल की कोई रुचती नहीँ थी, दूसरी ली, पर दाम तो दोनो के चुकाने चाहिये । यह कहना ठीक होगा कि अभी तो मेरा काम बम्बई से लाये हुए पाथेय से ही चल रहा था ।

इस कमरे में भी मैं परेशान रहा । देश की याद खूब आती थी । माताजी का प्रेम मूर्तिमान होता था । रात पड़ती और मैं रोना शुरु करता । घर की अनेक स्मृतियों की चढ़ाई के कारण नींद तो आ ही कैसे सकती थी ? इस दुःख की चर्चा किसी से की भी नहीं जा सकती थी , करने से लाभ भी क्या था ? मैं स्वयं नहीं जानता था कि किस उपाय से मुझे आश्वासन मिलेगा ।

यहाँ के लोग विचित्र, रहन सहन निचित्र , घर भी विचित्र, घरों में रहने का ढंग भी विचित्र ! क्या कहने और क्या करने से यहाँ शिष्टाचार के नियमों का उल्लंघन होगा , इसकी जानकारी भी मुझे बहुत कम थी । तिस पर खाने-पीने की परहेज, और खाने योग्य आहार सूखा तथा नीरस लगता था । इस कारण मेरी दशा सरौते के बीच सुपारी जैसी हो गयी । विलायत में रहना मुझे अच्छा नहीं लगता था और देश भी लौटा नहीं जा सकता था । विलायत पहुँच जाने पर तो तीन साल वहाँ पूरे करने का मेरा आग्रह था ।

 

 

 

 

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