मोहनदास करमचंद गाँधी की आत्मकथा

सत्य के प्रयोग

चौथा भाग

गोखले की उदारता

 

विलायत मे मुझे पसली की सूजन की जो शिकायत हुई थी , उसकी बात मै कर चुका हूँ । इस बीमारी के समय गोखले विलायत आ चुके थे । उनके पास मै और केलनबैक हमेशा जाया करते थे । अधिकतर लड़ाई की ही चर्चा होती थी । कैलनबैक दो जर्मनी का भूगोल कंठाग्र था और उन्होने यूरोप की यात्रा भी खूब की थी । इससे वे गोखले को नकशा खींचकर लड़ाई के मुख्य स्थान बताया करते थे ।

जब मै बीमार पड़ा तो मेरी बीमारी भी चर्चा का एक विषय बन गयी । आहार के मेरे प्रयोग तो चल ही रहे थे । उस समय का मेरा आहार मूंगफली, कच्चे और पक्के केले, नींबू, जैतून का तेल, टमाटर और अंगूर आदि का था । दूध , अनाज, दाल आदि मै बिल्कुल न लेता था । डॉ. जीवराज मेहता मेरी सार-संभाल करते थे । उन्होने दूध और अन्न लेने का बहुत आग्रह किया । शिकायत गोखले तर पहुँची । फलाहार की मेरी दलील के बारे मे उन्हें बहुत आदर न था, उनका आग्रह यह था कि आरोग्य की रक्षा के लिए डॉक्टर जो कहे सो लेना चाहिये।

गोखले को आग्रह को ठुकराना मेरे लिए बहुत कठिन था । जब उन्होंने खूब आग्रह किया, तो मैने विचार के लिए चौबीस घंटो का समय माँगा । केलनबैक और मै दोनो घर आये । मार्ग मे अपने धर्म विषय मे मैने चर्चा की । मेरे प्रयोग मे वे साथ थे । उन्हे प्रयोग अच्छा लगता था । पर अपनी तबीयत के लिए मै उसे छोडूँ तो ठीक हो, ऐसी उनकी भी भावना मुझे मालूम हुई । इसलिए मुझे स्वयं ही अन्तर्नाद का पता लगाना था ।

सारी रात मैने सोच-विचार मे बितायी । यदि समूचे प्रयोग को छोड़ देता, तो मेरे किये हुए समस्त विचार मिट्टी मे मिल जाते । उन विचारो मे मुझे कही भी भूल नही दिखायी देती थी । प्रश्न यह था कि कहाँ तक गोखले के प्रेम के वश होना मेरा धर्म था , अथवा शरीर-रक्षा के लिए ऐसे प्रयोगो को किस हद तक छोडना ठीक था । इसलिए मैने निश्चय किया कि इन प्रयोगो मे से जो प्रयोग केवल धर्म की दृष्टि से चल रहा है , उस पर ढृढ रहकर दूसरे सब मामलो मे डॉक्टर के कहे अनुसार चलना चाहिये ।

दूध के त्याग मे धर्म-भावना की स्थान मुख्य था । कलकत्ते मे गाय-भैस पर होने वाली दुष्ट क्रियाएँ मेरे सामने मूर्तिमंत थी । माँस की तरह पशु का दूध भी मनुष्य का आहार नही है , यह बात भी मेरे सामने थी । इसलिए दूध के त्याग पर डटे रहने का निश्चय करके मै सबेरे उठा। इतने निश्चय से मेरा मन बहुत हलका हो गया । गोखले का डर था, पर मुझे यह विश्वास था कि वे मेरे निश्चय का आदर करेंगे ।

शाम को नेशनल लिबरल क्लब मे हम उनसे मिलने गये । उन्होने तुरन्त ही प्रश्न किया , 'क्यो डॉक्टर का कहना मानने का निश्चय कर लिया न?'

मैने धीरे से जवाब दिया , 'मै सब कुछ करूँगा, किन्तु आप एक चीज का आग्रह न कीजिये । मै दूध और दूध के प्रदार्थ अथवा माँसाहार नही लूँगा । उन्हें न लेने से देहपात होता हो, तो वैसा होने देने मे मुझे धर्म मालूम होता है ।'

गोखले ने पूछा, 'यह आपका अंतिम निर्णय है ?'

मैने जवाब दिया, 'मेरा ख्याल है कि मै दूसरा जवाब नही दे सकता । मै जानता हूँ कि इससे आपको दुःख होगा , पर मुझे क्षमा कीजिये ।'

गोखले मे कुछ दुःख से परन्तु अत्यन्त प्रेम से कहा, 'आपका निश्चय मुझे पसन्द नही है । इसमे मै धर्म नही देखता । पर अब मै आग्रह नही करूँगा ।' यह कहकर वे डॉ. जीवराज मेहता की ओर मुड़े और उनसे बोले, 'अब गाँधी को तंग मत कीजिये । उनकी बतायी हुई मर्यादा मे उन्हे जो दिया जा सके , दीजिये ।'

डॉक्टर मे अप्रसन्नता प्रकट की , लेकिन वे लाचार हो गये । उन्होने मुझे मूंग का पानी लेने की सलाह दी औऱ उसमे हींग का बघार देने को कहा । मैने इसे स्वीकार कर लिया । एक-दो दिन वह खुराक ली । उससे मेरी तकलीफ बढ़ गयी । मुझे वह मुआफिक नही आयी । अतएव मै फिर फलाहार पर आ गया । डॉक्टर ने बाहरी उपचार तो किये ही । उससे थोडा आराम मिलता था । पर मेरी मर्यादाओ से वे बहुत परेशान थे । इस बीच लंदन का अक्तूबर-नवम्बर का कुहरा सहन न कर सकने के कारण गोखले हिन्दुस्तान जाने को रवाना हो गये ।

 

 

 

 

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