मोहनदास करमचंद गाँधी की आत्मकथा

सत्य के प्रयोग

चौथा भाग

संयम की ओर

 

मै पिछले प्रकरण मे लिख चुका हूँ कि आहार-सम्बन्धी कुछ परिवर्तन कस्तूरबाई की बीमारी के निमित्त हुए थे । पर अब तो दिन-प्रतिदिन ब्रह्मचर्य की दृष्टि से आहार मे परिवर्तन होने लगे ।

इनमे पहला परिवर्तन दूध छोड़ने का हुआ । मुझे पहले रायचन्दभाई से मालूम हुआ था कि दूध इन्द्रिय विकार पैदा करने वाली वस्तु है । अन्नाहार विषयक अंग्रेजी पुस्तको के वाचन से इस विचार मे वृद्धि हुई । लेकिन जब तक मै दूध छोड़ने का कोई खास इरादा नही कर सका था । यह चीज तो मै बहुत पहले से समझने लगा था कि शरीर के निर्वाह के लिए दूध आवश्यक नही है । लेकिन यह झट छूटने वाली चीज न थी । मै यह अधिकाधिक समझने लगा था कि इन्द्रिय दमन के लिए दूध छोड़ना चाहिये । इन्हीं दिनो मेरे पास कलकत्ते से कुछ साहित्य आया , जिसमे गाय-भैंस पर ग्वालो द्बारा किये जाने वाले क्रूर अत्याचारो की कथा थी । इस साहित्य का मुझ पर चमत्कारी प्रभाव पड़ा । मैने इस सम्बनध मे मि. केलनबैक से चर्चा की ।

यद्यपि मि. केलनबैक का परिचय मै सत्याग्रह के इतिहास मे दे चुका हूँ तो भी यहाँ दो शब्द अधिक कहने की आवश्यकता है । उनसे मेरी भेट अनायास ही हुई थी । वे मि. खान के मित्र थे । मि. खान ने उनके अन्तर की गहराई मे वैराग्य-वृत्ति का दर्शन किया था और मेरा ख्याल है कि इसी कारण उन्होने मेरी पहचान उनसे करायी थी । जिस समय पहचान हुई उस समय उनके तरह-तरह के शौको से और खर्चीलेपन से मै चौंक उठा था । पर पहले ही परिचय मे उन्होने मुझ से धर्म विषयक प्रश्न किये । इस चर्चा मे अनायास ही बुद्ध भगवान के त्याग की बात निकली । इस प्रसंग के बाद हमारा संपर्क बढता चला गया । वह इस हद तक बढा कि उन्होने अपने मन मे यह निश्चय कर लिया कि जो काम मै करूँ वह उन्हें भी करना चाहिये । वे बिल्कुल अकेले थे । मकान किराये के अलावा हर महीने लगभग बारह सौ रुपये वे अपने आप पर खर्च कर डालते थे । आखिर इसमे से इतनी सादगी पर पहुँच गये कि एक समय उनका मासिक खर्च घटकर 120 रुपये पर जा टिका । मेरे अपनी घर-गृहस्थी को तोड़ देने के बाद और पहली जेल यात्रा के पश्चात हम दोनो साथ रहने लगे थे । उस समय हम दोनो का जीवन अपेक्षाकृत अधिक कठोर था ।

जिन दिनो हम साथ रहते थे, उन्ही दिनो दूध सम्बन्धी उक्त चर्चा हुई थी । मि. केलनबैक ने सलाह दी, 'दूध के दोषो को चर्चा तो हम प्रायः करते ही है । तो फिर हम दूध छोड़ क्यो न दे ? उसकी आवश्यकता तो है ही नही । ' उनकी इस राय से मुझे सानन्द आश्चर्य हुआ । मैने इस सलाह का स्वागत किया और हम दोनो ने उसी क्षण टॉल्सटॉय फार्म पर दूध का त्याग किया । यह घटना सन् 1912 मे घटी ।

इतने त्याग से मुझे शान्ति न हुई । दूध छोड़ने के कुछ ही समय बाद केवल फलाहार के प्रयोग का भी हमने निश्चय किया । फलाहार मे भी जो सस्ते से सस्ते फल मिले , उनसे ही अपना निर्वाह करने का हमारा निश्चय था । गरीब से गरीब आदमी जैसा जीवन बिताता है , वैसा ही जीवन बिताने की उमंग हम दोनो को थी । हमने फलाहार की सुविधा का भी खूब अनुभव किया । फलाहार मे अधिकतर चूल्हा जलाने की आवश्यकता ही होती थी । बिना सिकी मूंगफली, केले, खजूर, नीबू और जैतून का तेल -- यह हमारा साधारण आहार बन गया ।

ब्रह्मचर्य का पालन करने की इच्छा रखनेवालो को यहाँ एक चेतावनी देने की आवश्यकता है । यद्यपि मैने ब्रह्मचर्य के साथ आहार और उपवास का निकट सम्बन्ध सूचित किया है, तो भी यह निश्चित है कि उसका मुख्य आधार मन पर है । मैला मन उपवास से शुद्ध नही होता । आहार का उस पर प्रभाव नही पड़ता । मन का मैल तो विचार से , ईश्वर के ध्यान से और आखिर ईश्वरी प्रसाद से ही छूटता है । किन्तु मन का शरीर के साथ निकट सम्बन्ध है और विकारयुक्त मन विकारयुक्त आहार की खोज मे रहता है । विकारी मन अनेक प्रकार के स्वादो और भोगो की तलाश मे रहता है और बाद मे उन आहारो तथा भोगो का प्रभाव मन पर पड़ता है । अतएव उस हद तक आहार पर अंकुश रखने की और निराहार रहने की आवश्यकता अवश्य उत्पन्न होती है । विकारग्रस्त मन शरीर और इन्द्रियो के अधीन होकर चलता है , इस कारण भी शरीर के लिए शुद्ध औऱ कम-से-कम विकारी आहार की मर्यादा की और प्रसंगोपात निराहार की -- उपवास की -- आवश्यकता रहती है । अतएव जो लोग यह कहते है कि संयमी के लिए आहार की मर्यादा की अथवा उपवास की आवश्यकता नही है , वे उतने ही गलती पर है जितने आहार तथा उपवास को सर्वस्व माननेवाले । मेरा अनुभव तो मुझे यह सिखाता है कि जिसका मन संयम की ओर बढ रहा है, उसके लिए आहार की मर्यादा और उपवास बहुत मदद करनेवाले है । इसकी सहायया के बिना मन की निर्विकारता असम्भव प्रतीत होती है ।

 

 

 

 

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