मोहनदास करमचंद गाँधी की आत्मकथा

सत्य के प्रयोग

चौथा भाग

'जाको राखे साइयाँ'

 

अब जल्दी ही हिन्दुस्तान जाने की अथवा वहाँ जाकर स्थिर होने की आशा मैने छोड दी थी । मैं तो पत्नी को एक साल का आश्वासन देकर वापस दक्षिण अफ्रीका आया था । सात तो बीत गया , पर मेरे वापस लौटने की संभावना दूर चली गई । अतएव मैने बच्चो को बुला लेने का निश्चय किया ।

 

बच्चे आये । उनमे मेरा तीसरा लड़का रामदास भी थी । रास्ते मे वह स्टीमर के कप्तान से खूँब हिल गया था और कप्तान के साथ खेलते खेलते उसका हाथ टूट गया था । कप्तान ने उसकी सार संभाल की थी । डॉक्टर ने हड्डी बैठा दी थी । जब वह जोहानिस्बर्ग पहुँचा तो उसका हाथ लकड़ी की पट्टियो के बीच बँधा हुआ औऱ रुमाल की गलपट्टी मे लटका हुआ था । स्टीमर के डॉक्टर की सलाह थी कि घाव को किसी डॉक्टर से साफ करा कर पट्टी बँधवा ली जाय ।

पर मेरा यह समय तो धडल्ले के साथ मिट्टी के प्रयोग करने का था । मेरे जिन मुवक्किलो को मेरी नीमहकीमी पर भरोसा था , उनसे भी मैं मिट्टी और पानी के प्रयोग कराता था । तब रामदास के लिए और क्या होता ? रामदास की उमर आठ साल की थी । मैने उससे पूछा, 'तेरे घाव की मरहम पट्टी मै स्वयं करूँ तो तू घबरायेगा तो नहीं?'

रामदास हँसा औऱ उसने मुझे प्रयोग करने की अनुमति दी । यद्यपि उस उमर में उसे सारासार का पता नही चल सकता था , फिर भी डॉक्टर और नीमहकीम के भेद को तो वह अच्छी तरह जानता था । लेकिन उसे मेरे प्रयोगो की जानकारी थी और मुझ पर विश्वास था , इसलिए वह निर्भय रहा ।

काँपते काँपते मैने उसकी पट्टी खोली । घाव को साफ किया औऱ साफ मिट्टी की पुलटिल रखकर पट्टी को पहले की तरह फिर बाँध दिया । इस प्रकार मैं खुद ही रोज घाव को घोता और उस पर मिट्टी बाँधता था । कोई एक महीने मे घाव बिल्कुल भर गया । किसी दिन कोई विध्न उत्पन्न न हूआ और घाव दिन ब दिन भरता गया । स्टीमर के डॉक्टर ने कहलवाया था कि डॉक्टरी पट्टी से भी घाव भरने मे इतना समय तो लग ही जायेगा ।

इस प्रकार इन घरेलू उपचारो के प्रति मेरा विश्वास और इन पर अमल करने की मेरी हिम्मत बढ गई । घाव, बुखार , अजीर्ण , पीलिया इत्यादि रोगो के लिए मिट्टी , पानी और उपवास के प्रयोग मैने छोटे बड़ों और स्त्री-पुरुषो पर किये । उनमे से वे अधिकतर सफल हुए । इतना होने पर भी जो हिम्मत मुझमे दक्षिण अफ्रीका मे थी वह यहाँ नही रही और अनुभव से यह भी प्रतीति हुई कि इन प्रयोगो मे खतरा जरुर है ।

इन प्रयोगो के वर्णन का हेतु अपने प्रयोगो की सफलता सिद्ध करना नही है । एक भी प्रयोग सर्वाश मे सफल हुआ हैं , ऐसा दावा नही किया जा सकता । डॉक्टर भी ऐसा दावा नही कर सकते । पर कहने का आशय इतना ही है कि जिसे नये अपरिचित प्रयोग करने हो उस आरम्भ अपने से ही करना चाहिये । ऐसा होने पर सत्य जल्दी प्रकट होता है और इस प्रकार के प्रयोग करने वाले को ईश्वर उबार लेता है ।

जो खतरा मिट्टी के प्रयोगो में था, वह यूरोपियनो के निकट सहवास मे था । भेद केवल प्रकार का था । पर स्वयं मुझे तो इन खतरो का कोई ख्याल कर न आया ।

मैने पोलाक को अपने साथ ही रहने के लिए बुला लिया और हम सगे भाइयो की तरह रहने लगे । जिस महिला के साथ पोलाक का विवाह हुआ, उसके साथ उनकी मित्रता कोई वर्षो से थी । दोनो ने यथासमय विवाह करने का निश्चय भी कर लिया था । पर मुझे याद पड़ता है कि पोलाक थोड़ा धन संग्रह कर लेने की बाट जोह रहे थे । मेरी तुलना मे रस्किन का उनका अध्ययन कहीँ अधिक और व्यापक था । पर पश्चिम के वातावरण मे रस्किन के विचारो को पूरी तरह आचरण मे लाने का बात उन्हें सूझ नही सकती थी । मैने दलील देते हुए कहा, 'जिसके साथ हृदय की गाँठ बँध गयी है, केवल धन की कमी के कारण उसका वियोग सहना अनुचित कहा जायेगा । आपके हिसाब से तो कोई गरीब विवाह कर ही नही सकता । फिर अब तो आप मेरे साथ रहते है । इसलिए घरखर्च का सवाल ही नही उठता । मै यही ठीक समझता हूँ कि आप जल्दी अपना विवाह कर ले ।'

मुझे पोलाक के साथ कभी दूसरी बार दलील करनी न पड़ती थी । उन्होंने मेरी दलील तुरन्त मान ली । भावी मिसेज पोलाक विलायत मे थी । उनके साथ पत्र व्यवहार शुरु किया । वे सहमत हुई और कुछ ही महीनों मे विवाह के लिए जोहानिस्बर्ग आ पहुँची ।

विवाह में खर्च बिल्कुल नही किया था । विवाह की कोई खास पोशाक भी नही बनबायी थी । उन्हें धार्मिक विधि का आवश्यकता न थी । मिसेज पोलाक जन्म से ईसाई और मि. पोलाक यहूदी थे । दोनो के बीच सामान्य धर्म तो नीतिधर्म ही थी ।

पर इस विवाह की एक रोचक प्रसंग यहाँ लिख दूँ । ट्रान्सवाल मे गोरो के विवाह की रजिस्ट्री करने वाला अधिकारी काले आदमी की रजिस्ट्री नही करता था । इस विवाह का शहबाला (विवाह की सब रस्मों में वर के साथ रहने वाला व्यक्ति) मैं था । खोजने पर हमें कोई गोरा मित्र मिल सकता था । पर पोलाक के लिए वह सह्य न था । अतएव हम तीन व्यक्ति अधिकारी के सामने उपस्थित हुए । जिस विवाह मे मैं शहबाला होऊँ उसमे वर-वधू दोनो गोरे ही होगे, अधिकारी को इसका भरोसा कैसे हो ? उसने जाँच होने तक रजिस्ट्री मुलतवी रखनी चाही । उसके बाद का दिन नये साल का होने से सार्वजनिक छुट्टी का दिन था । ब्याह के पवित्र निश्चय से निकले हुए स्त्री पुरुष के विवाह की रजिस्ट्री का दिन बदला जाय , यह सब को असह्य प्रतीत हुआ। मैं मुख्य न्यायाधीश को पहचानता था । वे इस विभाग के उच्चाधिकारी थे । मैं इस जोड़े को लेकर उनके सामने उपस्थित हुआ । वे हँसे और उन्होंने मुझे चिट्ठी लिख दी । इस तरह विवाह की रजिस्ट्री हो गयी ।

आज तक न्यूनाधि ही सही, परन्तु जाने पहचाने गोरे पुरूष मेरे साथ रहे थे । अब एक अपरिचित अंग्रेज महिला ने कुटुम्ब मे प्रवेश किया । स्वयं मुझे तो याद नहीं पड़ता कि इस कारण परिवार मे कभी कोई कलह हुआ हो । किन्तु जहाँ अनेक जातियों के और अनेक स्वभावों के हिन्दुस्तानी आते जाते थे और जहाँ मेरी पत्नी को अभी तक ऐसे अनुभव कम ही थे , वहाँ दोनो के बीच कभी उद्वेग के अवसर जितने आते है, उनसे अधिक अवसर तो इस विजातीय परिवाक मे नहीं ही आये । बल्कि जिनका मुझे स्मरण है वे अवसर भी नगण्य ही कहे जायेगे । सजातीय और विजातीय की भावनाये हमारे मन की तरंगे है । वास्तव मे हम सब एक परिवार ही है ।

वेस्ट का ब्याह भी यहीं सम्पन्न कर लूँ । जीवन के इस काल तक ब्रह्मचर्य विषयक मेरे विचार परिपक्व नही हुए थे । इसलिए कुँवारे मित्रो का विवाह करा देना मेरा धंधा बन गया था । जब वेस्ट के लिए अपने माता पिता के पास जाने का समय आया तो मैने उन्हें सलाह दी जहाँ तक बन सके वे अपना ब्याह करके ही लौटे । फीनिक्स हम सब का घर बन गया था और हम सब अपने को किसान मान बैठे थे, इस कारण विवाह अथवा वंशवृद्धि हमारे लिए भय का विषय न था ।

 

वेस्ट लेस्टर की एक सुन्दर कुमारिका को ब्याह कर लाये । इस बहन का परिवार लेस्टर मे जूतो का बड़ा व्यवसाय चलता था उसमे काम करता था । मिसेज वेस्ट ने भी थोड़ा समय जूतो के कारखाने मे बिताया था । उसे मैने 'सुन्दर' कहा है , क्योकि मै उसके गुणो को पुजारी हूँ और सच्चा सौन्दर्य तो गुण मे ही होता है । वेस्ट अपनी सास को भी अपने साथ लाये थे । वह भली बुढिय़ा अभी जीवित है । अपने उद्यम और हँसमुख स्वभाव से वह हम सबको सदा शरमिन्दा किया करती थी ।

जिस तरह मैने इन गोरे मित्रो के ब्याह करवाये, उसी तरह मैने हिन्दुस्तानी मित्रो को प्रोत्साहित किया कि वे अपने परिवारो को बुला ले । इसके कारण फीनिक्स एक छोटा सा गाँव बन गया और वहाँ पाँच सात भारतीय परिवार बस कर बढने लगे ।

 

 

 

 

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