मोहनदास करमचंद गाँधी की आत्मकथा

सत्य के प्रयोग

पाँचवा भाग

कार्य-पद्धति

 

चम्पारन की जाँच का विवरण देने का अर्थ है, चम्पारन के किसानो का इतिहास देना । ऐसा विवरण इन प्रकरणों मे नही दिया जा सकता । फिर, चम्पारन की जाँच का अर्थ है , अहिंसा और सत्य का एक बड़ा प्रयोग । इसके सम्बन्ध की जितनी बाते मुझे प्रति सप्ताह सूझती है उतनी देता रहता हूँ । उसका विशेष विवरण तो पाठको को बाबू राजेन्द्रप्रसाद द्वारा लिखित इस सत्याग्रह के इतिहास और 'युगधर्म' प्रेस द्वारा प्रकाशित उसके (गुजराती) अनुवाद में ही मिल सकता है ।

अब मै इस प्रकरण के विषय पर आता हूँ । यदि गोरखबाबू के घर रहकर यह जाँच चलायी जाती , तो उन्हें अपना घर खाली करना पड़ता । मोतीहारी मे अभी लोग इतने निर्भय नही हुए थे कि माँगने पर कोई तुरन्त अपना मकान किराये पर दे दे । किन्तु चतुर ब्रजकिशोरबाबू ने एक लम्बे चौड़े अहाते वाला मकान किराये पर लिया और हम उसमे रहने गये ।

स्थिति ऐसी नही थी कि हम बिल्कुल बिना पैसे के अपना काम चला सके । आज तक की प्रथा सार्वजनिक काम के लिए जनता से धन प्राप्त करने की नही थी। ब्रजकिशोरबाबू का मंडल मुख्यतः वकीलो का मंडल था । अतएव वे जरूरत पड़ने पर अपनी जेब से खर्च कर लेते थे और कुछ मित्रो से भी माँग लेते थे । उनकी भावना यह थी कि जो लोग स्वयं पैसे-टके से सुखी हो , वे लोगो से द्रव्य की भिक्षा क्यो माँगे ? मेरा यह ढृढ निश्चय था कि चम्पारन की रैयत से एक कौड़ी भी न ली जाय । यदि ली जाती तो उसका गलत अर्थ लगाये जाते । यह भी निश्चय था कि इस जाँच के लिए हिन्दुस्तान मे सार्वजनिक चन्दा न किया जा । वैसा करने पर यह जाँच राष्ट्रीय और राजनीतिक रूप धारण कर लेती । बम्बई से मित्रो मे 15 हजार रुपये की मदद का तार भेजा । उनकी यह मदद सधन्यबाद अस्वीकार की गयी । निश्चय यह हुआ कि ब्रजकिशोरबाबू का मंडल चम्पारन के बाहर से , लेकिन बिहार के ही खुशहाल लोगो से जितनी मदद ले सके और कम पड़ने वाली रकम मै डॉ. प्राणजीवनदास मेहता से प्राप्त कर लूँ । डॉ. मेहता ने लिखा कि जिनते रूपयो की जरूरत हो, मंगा लीजिये । अतएव द्रव्य के विषय मे हम निश्चिन्त हो गये । गरीबी-से , कम-से कम से खर्च करते हुए , लड़ाई चलानी थी , अतएव अधिक द्रव्य की आवश्यकता पड़ने की संभावना न थी । असल मे पड़ी भी नही । मेरा ख्याल है कि कुल मिलाकर दो या तीन हजार से अधिक खर्च नही हुआ था । जो द्रव्य इकट्ठा किया गया था उसमे से पाँच सौ या एक हजार रुपये बच गये थे , ऐसा मुझे याद है ।

 

शुरू-शुरू के दिनो मे हमारी रहन-सहन विचित्र थी और मेरे लिए वह रोज के विनोद का विषय बन गयी थी । वकील-मंडल मे हर एक का अपना रसोइयो था और हरएक के लिए अलग अलग रसोई बनती थी । वे रात बारह बजे तक भी भोजन करते थे । ये सब महाशय रहते तो अपने खर्च से ही थे। परन्तु मेरे लिए अनकी यह रहन-सहन उपाधि रूप थी । मेरे और साथियो के बीच इतनी मजबूत प्रेमगांठ बंध गयी थी कि हममे कभी गलतफहमी हो ही नही सकती थी। वे मेरे शब्दबाणो को प्रेम-पूर्वक सहते थे । आखिर यह तय हुआ कि नौकरो को छुट्टी दे दी जाय । सब एक साथ भोजन करे और भोजन के नियमो का पालन करे । सब निरामिषाहारी नही थे और दो रसोईघर चलाने से खर्च बढता था । अतएव निश्चय हुआ कि निरामिष भोजन ही बनाया जाये और एक ही रसोईघर रखा जाये । भोजन भी सादा रखने का आग्रह था । इससे खर्च मे बहुत बहुत हुई , काम करने की शक्ति बढ़ी और समय भी बचा ।

अधिक शक्ति की बहुत आवश्यकता थी , क्योकि किसानो के दल-के-दल अपनी कहानी लिखाने के लिए आने लगे थे । कहानी लिखाने वालो के साथ भीड़ तो रहती ही थी । इससे मकान का आहाता और बगीचा सहज ही भर जाता था । मुझे दर्शानार्थियो से सुरक्षित रखने के लिए साथी भारी प्रयत्न करते और विफल हो जाते । एक निश्चित समय पर मुझे दर्शन देने के बाहर निकाने सिवा कोई चारा न रह जाता था । कहानी लिखनेवाले भी पाँच-सात बराबर बने ही रहते थे, तो भी दिन के अन्त मे सबके बयान पूरे न हो पाते थे । इतने सारे बयानो की आवश्यकता नही थी , फिर भी बयान लेने से लोगो को संतोष होता था और मुझे उनकी भावना का पता चलता था ।

कहानी लिखनेवालो को कुछ नियमो का पालन करना पड़ता था । जैसे , हरएक किसान से जिरह की जाय । जिरह मे जो उखड़ जाये , उसका बयान न लिया जाय । जिसकी बात मूल मे ही बेबुनियाद मालूम हो , उसके बयान न लिखे जाये । इस तरह के नियमो के पालन से यद्यपि थोड़ा अधिक समय खर्च होता था , फिर भी बयान बहुत सच्चे और साबित हो सकने वाले मिलते थे ।

इन बयानो के लेते समय खुफिया पुलिस का कोई-न-कोई अधिकारी हाजिर रहता ही था । इन अधिकारियो को आने से रोका जा सकता था । पर हमने शुरू से ही निश्चय कर लिया था कि उन्हें न सिर्फ हम आने से नही रोकेंगे , बल्कि उनके प्रति विनय का बरताव करेंगे और दे सकने योग्य खबरे भी उन्हें देते रहेंगे । उनके सुनते और देखतो ही सारे बयान लिये जाते थे । उसका लाभ यह हुआ कि लोगो मे अधिक निर्भयता आयी । खुफिया पुलिस से लोग बहुत डरते थे । ऐसा करने से वह डर चला गया और उनकी आँखो के सामने दिये जानेवाले बयानो मे अतिशयोक्ति का डर कम रहता था । इस डर से कि झूठ बोलने पर अधिकारी कही उन्हे फांद न ले, उन्हें सावधानी से बोलना पड़ता था ।

मै निलहो को खिझाना नही चाहता था, बल्कि मुझे तो उन्हें विनय द्वारा जीतने का प्रयत्न करना था । इसलिए जिसके विरूद्ध विशेष शिकायते आती , उसे मै पत्र लिखता और उससे मिलनेका प्रयत्न भी करता था । निलहो के मंडल से भी मै मिला और रैयत की शिकायते उनके सामने रखकर मैने उनकी बातें भी सुन ली थी । उनमें से कुछ तिरस्कार करते थे , कुछ उदासीन रहते थे और कोई-कोई मेरे साथ सभ्यता और नम्रता का व्यवहार करते थे ।

 

 

 

 

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