Dr Amit Kumar Sharma

लेखक -डा० अमित कुमार शर्मा
समाजशास्त्र विभाग, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली - 110067

युग परिवर्तन और हिन्दू युक्तिवाद

युग परिवर्तन और हिन्दू युक्तिवाद

 

बरसात में जिस तरह कुकुरमुत्ते उग आते हैं ठीक उसी तरह 1970 के दशक में कर्त्तव्य, इज्जत, प्रतिज्ञा जैसी फिल्में बनीं। स्वतंत्र भारत में प्रभुपाद,  ओशो रजनीश, महेश योगी, आशाराम बापू, रामदेव महराज या श्री श्रीरविशंकर भी इसी तरह आध्यात्मिक बाजार के उद्यमी बने। और इसी तरह स्वतंत्र भारत की राजनीति चलती रही। इसी तरह समाज विज्ञानों का प्रचार-प्रसार हुआ।

युग परिवर्तन (पैराडाइम शिफ्ट) की प्रक्रिया अभी अधूरी है। अंग्रेजी राज अब भी चल रहा है। अंग्रेजों के जाने के बाद नेहरू युग में सवर्ण का शासन चला। 1967 से 2007 तक शुद्र (ओ. बी. सी./ मंडल वादी) राजनीति चली। अब अवर्ण (दलित) - ब्राहमण राजनीति शुरू हुई है। इस राजनीति के चूकने के बाद फाउन्डेशन की राजनीति शुरू होगी। कॉरपोरेटाइजेशन के बाद फिल्मों के निर्माण और वितरण का स्वरूप बदलने लगा है।

धर्म के क्षेत्र में भी धीरे-धीरे गुणात्मक परिवर्तन होगा। ईसाईयों, मुसलमानों, सिखों, आर्यसमाजियों एवं संघ परिवार की तरह वृहतर हिन्दू समाज की धार्मिक जरूरतों की पूर्ति पारम्परिक तरीके से नहीं हो पा रही है। मांग है लेकिन पूर्ति नहीं हो पा रही है।

दयानंदसरस्वती, श्री-श्रीरविशंकर, प्रणव पंडया, अवधेशानंद गिरी और रामदेव महाराज जैसे धार्मिक उद्यमियों का प्रभाव क्षेत्र क्षेत्रीय दलों की तरह सीमित है। इनका सम्मिलित प्रभाव क्षेत्र आर्यसमाज से जुड़ी संस्थाओं से अब भी कम है। इनमें रामदेव महाराज में सबसे जयादा संभावना है। लेकिन संघ परिवार के ट्रंप कार्ड दयानंद सरस्वती, प्रणव पंडया, अवधेशानंद गिरी या साध्वी रितंभरा हैं। इसी तरह किरीट जोशी और डी. पी. चट्टोपाध्याय हैं। हिन्दू थियोलॉजी का केन्द्र या पौरोहित्य प्रशिक्षण का युगानुकुल संस्थान बनना अब भी बाकी है। संस्कृति, तीर्थों एवं आस्था के पुराने स्वरूपों का युगानुकुल रूपांतरण एवं पुनर्सृजन होता है संरक्षण नहीं होता । कालबाह्य चीजों का संरक्षण संवर्धन नहीं हो सकता।

संघ के पास संगठन कौशल और नौकरशाही की तरह राष्ट्रव्यापी नेटवर्क तो है लेकिन इनके पास दूरदृष्टि एवं साधना का अभाव है। एक संगठन के रूप में संघ की शक्ति और कांग्रेस पार्टी का प्रभाव दोनों ही समान रूप से क्षरण की स्थिति में है। राष्ट्रीय स्तर पर दोनों ही प्रतियोगी गठबंधनों के केन्द्र में रहेंगे। और दोनों गठबंधनों को धीरे-धीरे फाउन्डेशन चलायेंगे। इसका विकल्प राष्ट्रपति की संस्था को प्रभावी बनाना हो सकता है। वर्ना दलाल ही व्यवस्था को चलाते रहेंगे। इतने बड़े देश को एक केन्द्र से चलाना संभव नहीं है। खासकर धार्मिक और सांस्कृतिक मामलों में इस देश के विभिन्न क्षेत्रों का इतिहास इतना अलग-अलग रहा है कि विमर्श और मूल आस्था के स्तर पर तो एकता हो सकती है लेकिन भाषा, राजनीति, सम्प्रदाय और रहन-सहन के स्तर पर विविधता ही कल्याणदायक हो सकती है।

असली काम बौध्दिक स्तर पर ही होना है। एक इस देश के विर्मश को स्वदेशी (डिकोलोनियल) बनाना है। लेकिन स्वदेशी का अर्थ 1757 या 1190 के पहले की संस्कृति को स्वीकार करना नहीं है। इसका अर्थ भारत में प्रचलित हर संस्कृति को स्वीकार करना भी नहीं है। इस पर सर्वानुमति की संभावना नहीं है। यह 'अहिंसा' के गांधीवादी आग्रह को हर स्थिति में मानना भी नहीं है।

हर पीढ़ी को अपनी परंपरा खुद चुननी पड़ती है। अंगीकार करनी पड़ती है। निर्णय लेना या देना हमेशा ही मूल्य सापेक्ष प्रक्रिया रहा है। फिल्मों में भी रहस्य, रोमांच, उत्सुकता के साथ मूल्यबोध का ही महत्व है।
हर फिल्म एक निर्णय है। मोक्ष या बंधन है। पुनर्जन्म है। संसार की अनुकृति है।

 

फिल्म इज्जत में पादरी क्यों है? बनावासी कल्याण आश्रम क्यों नहीं है? किस जनजाति इलाके की कहानी है? हिन्दी फिल्मों में जनजातिय संस्थाओं के साथ न्याय क्यों नहीं होता? ग्रामीण संस्थाओं के साथ न्याय क्यों नहीं होता? हिन्दू संस्थाओं के साथ न्याय क्यों नहीं होता? आयुर्वेद, योग के साथ न्याय क्यों नहीं होता?

समाज विज्ञान हो या सिनेमा इनमें पश्चिमी समाज की बर्बरता, हिंसा, नफरत और हीनता और गैर-पश्चिमी समाज के बारे में अकादमिक एवं सिनेमाई फार्मूले के रूप में उपस्थित रहता है। किसी खास ब्राहमण/सवर्ण पात्र की अज्ञानता, ढोंग एवं डींग का अर्थ पूरी वर्णव्यवस्था का अन्याय पूर्ण एवं अत्याचारी होना नहीं होता। परंतु अधिकांश हिन्दी फिल्मों में कलात्मक स्वाधीनता के नाम पर यही होता है।

आदमी को मूलत: जजमेंट/निर्णय/न्याय के मामले में ही दुविधा होती है। वह भी तब जब आस्था का संकट हो। जब मन में लोभ, मोह, क्रोध का आवरण हो तब अंतरात्मा की आवाज नहीं सुनायी देती। जब दुविधा बढ़ जाती है आदमी ढुलमुल बन जाता है।

सामान्य हिन्दी फिल्मों में दिमाग के ऊपर दिल की जीत होती है। पारंपरिक संस्थाओं की हार होती है, आधुनिकता की जीत होती है। भारतीय दृष्टि में आधुनिकता आधुनिक तर्क या वैज्ञानिक श्रेष्ठता का उतना मामाला नहीं है जितना दिल का है। या पारंपरिक विकल्पों के क्षरण का मामला है। दिल के अरमानों की पूर्ति के लिए आधुनिकता एक साधन भर है। इसीलिए अमिय चक्रवर्ती के दाग में होपलेस विलेज में अपनी रचनात्मक कुंठा के कारण होपलेस ड्रंकर्ड शहर की आधुनिकता से जो साधन प्राप्त करता है उसके बाद वह शहर में ही नहीं रह जाता बल्कि गांव में वापिस आ जाता है। फिल्म स्वदेश में भी नायक दिल के कारण वापिस आता है दिमागी स्वदेशी विचारधारा के तर्क के कारण वापिस नहीं आता है। विवेकानंद, हजारी प्रसाद द्विवेदी, एम. एन. श्रीनिवास, विद्यानिवास मिश्र आदि इसको अपनी भाषा में दूसरे तरीके से कहेंगे। लेकिन हैं सभी हिन्दू युक्तिवादी ही। इनके पास इस युक्तिवाद का कोई व्यवस्थित सिध्दांत भले नहीं है लेकिन  एक सनातनी व्यक्ति गुलामी के इन हजार वर्षों में साधन की नहीं साध्य की परवाह करता है। वह साध्यभ्रष्ट नहीं होता। साधन भ्रष्ट होता है। अस्तित्व रक्षा के लिए यह अवश्यक है। भक्ति की विचारधारा में इसे गरिमा प्रदान किया गया।

 

 

  डा० अमित कुमार शर्मा के अन्य लेख  

 

top