Dr Amit Kumar Sharma

लेखक -डा० अमित कुमार शर्मा
समाजशास्त्र विभाग, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली - 110067

संकल्प

संकल्प

 

          विचार - अग्नि है। विज्ञान अग्नि है। विद्या - सोम है। कला सोम है।       

     

भाद्रपद में नदियों (मन) का वेग रोककर उनके उद्गम स्थान में लौटाकर उन्हें सुखा देना असंभव है, परन्तु उनकी धाराओं का मुँह फेरकर उन्हें छिन्न - भिन्न कर सुखाना संभव है। इसी तरह सात्विक वृत्तिायों से तामस वृत्तियों को शनै: शनै: काट कर मन को संकल्प - विकल्प से रहित रखना संभव है। अंतरंग सूक्ष्म सात्विक वृत्तिायों से स्थूल बहिरंग सात्विक वृत्तिायों को भी काट कर निर्वृत्तिकता सम्पादन की जा सकती है।
जैसे लोगों का सहवास होता है और जैसे लोगों का सेवन होता है, जैसा होने की उत्कट वांछा होती है, प्राणी वैसा ही हो जाता है। अच्छे विचारों का आदर और उनके उपवृंहण की भावना से तथा दूसरों के शुभानुसंधान से विचारों मे बल आता है। कोई भी प्राणी एकाग्रता से संकल्प या विचार द्वारा ही, बाहरी प्रयत्नों के बिना ही मनचाही वस्तु बना सकता है। यदि प्राणी बार-बार संकल्पित पदार्थ के प्रति अविश्वास करता है तो यह अविश्वास संकल्प सिध्दि में बाधक होता है। भावना या उपासना में भी यह अविश्वास ही प्रतिबन्धक है। विश्वास पूर्वक संकल्पित इष्टदेव की मूर्ति, उसके भूषणालंकार , भोग-रागादि कुछ दिनों में प्रत्यक्ष प्रकट हो जाते हैं। सभी देश-काल आदि मन की ही कल्पना हैं। मन ही संसार है।
गृह छिद्र से आने वाली सूर्य-किरणों में दिखाई देनेवाले सूक्ष्मरजों का आठवाँ या छठा हिस्सा परमाणु है, उसका पांचवाँ हिस्सा स्पर्शतन्मात्रा, उसके स्वल्पांश में प्राण और प्राण के सहारे रहने वाले मन में ब्रहमाण्ड रहता है। ब्रहमाण्ड में अनन्त मन रहते हैं, उनमें ब्रहमाण्ड रहता है।
संकल्प के बल से स्वल्य देश में महादेव, स्वल्य काल में महाकाल का प्रवेश संभव है। सूक्ष्म संकल्प से या विचार से ही स्थूल जगत् बन जाता है। मनोमय जगत् ही स्थूल प्रपंच होकर भासित होने लगता है। जैसे सूर्य के किरणों में रहने वाला अति सूक्ष्म जल ही कठोर बर्फ बन जाता है, वैसे अति सूक्ष्म संकल्प ही कठोर जगत् बन जाता है। भावना ही अभिनिवेश की अधिकता से गाढ़ होते होते स्थूल प्रपंच बन जाती है। उसके स्थूल या सूक्ष्म बनाने की पध्दतियाँ (तंत्र) जिन्हें मालूम हैं, वे लोग सहज में ही स्थूल को सूक्ष्म और सूक्ष्म को स्थूल बना लेते हैं। वैसे ही संकल्प की ही महिमा से स्थूल जगत् सूक्ष्म और सूक्ष्म स्थूल बन जाता है। इसी संकल्प को कामधेनु, चिन्तामणि या कल्पतरू भी कहा जाता है।
बुरे कर्मों को छोड़कर अच्छे कर्मों, आराधनाओं, तपस्याओं में लगे रहने पर संकल्प या विचार की शक्ति मजबूत हो जाती है। दृढ़ संकल्प से प्राणी सब कुछ प्राप्त कर सकता है। जैसे वायु के योग से जल ही तरंग बन जाता है, उसी तरह मननी शक्ति के योग से अखण्डबोध -स्वरूप परमात्मा ही विचार या संकल्प बन जाता है। निर्विकल्प बोध ही जब सविकल्प हो जाता है, तब वही संकल्प या विचार कहलाने लगता है। विचार में से विकल्प के निकलते ही वह निर्विकल्प बोधरूप परमात्मा ही बन जाता है। इस तरह सविकल्प बोध विचार या संकल्प के भीतर सम्पूर्ण विश्व रहता है और वह विचार अखण्ड बोध से कवलित रहता है।
समस्त प्रपंच को संकल्प में लीन करने और संकल्प को अखण्ड बोध में लीन कर लेने पर शुद्वतत्व का साक्षात्कार अपने आप हो जाता है। शुद्व संकल्प से दुर्लभ से दुर्लभ चीज मिल सकती है। बुरे संकल्पों से उनकी शक्ति घटती है, अच्छे संकल्पों से उनकी महिमा बढ़ती है। विशिष्टशक्ति संपन्न महात्मा या ऋषि तो अकेले ही अपने दृढ़ संकल्प से विश्व का कल्याण कर सकता है , दुनिया की भावना में परिवर्तन कर सकता है , परन्तु उनके अभाव में सामूहिक संकल्प काम देता है।
सामूहिक संकल्प - धर्म की जय हो, अधर्म का नाश हो ,प्राणियों में सद्भावना हो , विश्व का कल्याण हो।
जब मन की हलचल है तभी द्वैत है। मन की हलचल न होने पर विश्व का पता ही नहीं लगता। तपस्या, सत्कर्म और उत्तम मंत्रों के जप से जुड़कर संकल्प का बल दुगुना हो जाता है।
मंत्र परम लघु जासु बस ,विधि हरिहर सुर सर्व महामंत्र गजराज कहँ , वश कर अंकुश खर्व जैसे संसार के विविध तृणों में विचित्र शक्तियां होती हैं , कोई तृण किसी रोग को दूर कर सकता है कोई किसी अन्य रोग को। एक-एक तृणों में कैसी - कैसी शक्तियां हैं ,इसका पता लगाना योगियों के अलावे किसी के वश की बात नहीं है। पुनश्य: किन - किन तृणों के मिलने से कितनी और  किन - किन शक्तियों का विकास या विघटन होगा यह जानना और भी कठिन है।
उसी तरह वर्णों एवं मंत्रों की भी बात है। पचास वर्णों (ध्वनियों) के ही संश्लेष - विश्लेष से दुनिया की अपरगणित ग्रन्थ राशि तैयार हुई है। स्वर विशेष , विराम , टोन या तर्ज आदि के भेद से मंत्र जाप के प्रभाव का फर्क पड़ता है। शाबरी मंत्रों के अक्षर अनमिल हैं, अर्थ और पुरश्चरण का संबध नहीं है, फिर भी फल होता है।
सब यन्त्रों में सब औषधियां नहीं बन सकती। न सब पात्रों में रखी ही जा सकती हैं। वैसे ही भिन्न-भिन्न कर्म और भिन्न-भिन्न मंत्रों के भिन्न- भिन्न अधिकारी हैं। उपनयनादि संस्कार संपन्न प्राणी ही श्रुति , स्मृति आदि के अध्ययन का अधिकारी होता है। ब्राहमण का मदिरापान और शूद्र का वेदाक्षर विचार उन दोनो के लिए हानिकारक होता है। त्रवणिकों के लिए प्रणव युक्त मंत्र और शूद्र , स्त्रियों के लिए प्रणवरहित मंत्र का ही जप विधान है। द्वादशाक्षर सर्वसिध्दि प्रदायक है। स्त्री- शूद्रों के लिए  वितार अर्थात प्रणव रहित और द्विजजातियों के लिए सतार मंत्र का जप ठीक है।
ब्रहमण अध्ययन - अध्यापन दोनों का अधिकारी है। क्षत्रिय- वैश्य वेदादि शास्त्रों के अध्ययन का अधिकारी है, अध्यापन का नहीं। शूद्र, स्त्री आदि इतिहास- पुराणादि का श्रवण करके उपासना , ज्ञान और अपने अधिकारानुसार कर्मों का ज्ञान प्राप्त करके प्रवृत हों, तो उसी से उनका कल्याण होगा।   

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