Dr Amit Kumar Sharma

लेखक -डा० अमित कुमार शर्मा
समाजशास्त्र विभाग, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली - 110067

पाठशाला (2010) - मिलिन्द उके

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पाठशाला (2010) - मिलिन्द उके

 

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तब भी वे मानते थे कि वे लोग गुलाम होने के बावजूद 'चोजेन पीपल' (ईश्वरीय कृपा पात्र समूह) हैं जबकि रोमण लोग शासक होने के बावजूद ईश्वरी कृपा पात्र समूह नहीं हैं। अत: ईसाई थियोलॉजी में विपरीत परिस्थिति में आस्था बनाये रखना कोई नई बात नहीं थी। नई बात तो तब पैदा हुई जब आधुनिकता आई। जब आधुनिक समृद्धि के बाद ईसाईयों की ही एक बड़ी जमात आस्थाहीन हो गई। इसमें नीत्से के विचारों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। 13वीं शताब्दी में जब पुनर्जागरण हुआ तो अरस्तु और प्लेटो के काम से ईसाई परिचित हुए। इसका स्रोत अरबी था। अत: अरस्तु और प्लेटो के प्रति ईसाई विद्वानों में एक दुविधा पायी जाती है। ये लोग केवल ग्रीक विद्वान नहीं थे। ये लोग अरबी माध्यम से यूरोप में लाए गए थे। अरबों ने जब स्पेन पर कब्जा किया तो एक प्रकार की उपरि एकता यूरोप के ईसाईयों में देखने को मिलती है। यह एकता टिकाऊ नहीं थी।

ईसाईयों में सेकुलर एवं सेके्रड दो आयाम शुरू से ही रहा है। अत: आधुनिकता के बाद भी सेकुलर एवं सेके्रड दो आयाम बना रहा। इस्लाम में अवधारणा के स्तर पर सेकुलर की अवधारणा नहीं रही है। सेकुलर बन कर आप मुसलमान नहीं रह जाते। सेकुलर बन कर आप इस्लाम के दायरे से बाहर चले जाते हैं। हर मुसलमान हज करने के बाद मक्का से पानी ले आता है। जैसे हिन्दू लोग गंगा जल लाते हैं। मुसलमान गंडा और ताबीज में भी विश्वास करते हैं। अमेरिका के इवानजेलिस्ट लोग और सउदी अरब के वहाबी लोग आधुनिकता की उपज हैं।

इवानजेलिस्ट लोग अपनी आस्था के लिए किसी की जान ले तो सकते हैं लेकिन अपनी इच्छा से आस्था के लिए अपनी जान दे नहीं सकते। शहीद होने की अवधारणा आधुनिक ईसाईयों में जीवंत अवधारणा नहीं है। दूसरी ओर मुसलमानों में शहीद की अवधारणा आज भी है। वहाबी इस्लाम और जेहादी इस्लाम के कुनबे में शहीद की अवधारणा का दुरूपयोग भी हो रहा है।

पवित्र रोमण साम्राज्य में पोप धार्मिक और सांसारिक दोनों मामलों के मुखिया थे। वे सम्राट और धर्मगुरू दोनों थे। लेकिन ईसा मसीह केवल धर्मगुरू थे। जबकि पैगंबर मुहम्म्द शुरू से ही स्रमाट और धर्मगुरू दोनों थे। प्रथम विश्वयुद्भ तक खलीफा का पद तुर्की में कायम था। दलाई लामा भी तिब्बती लोगों के सम्राट एवं धर्मगुरू दोनों हैं। भारत के हिन्दुओं में यह प्रथा कभी नहीं थी। यहुदियों में भी यह प्रथा कभी नहीं रही है। हजरत मूसा केवल धर्मगुरू थे। मार्क्स ने क्रांति करनी चाही थी। लेकिन वे असफल क्रांतिकारी थे। उनको सफलता केवल विचारक के रूप में मिली। लेनिन को क्रांति का सफल नेतृत्व करने का मौका मिला। वे सोवियत संघ के प्रथम तानाशाह भी बने। उन्होंने मार्क्स को अपना विचारक और मार्गदर्शक माना। मार्क्स की 1833 में मृत्यु हो चुकी थी। माओ ने खुद को पैगम्बर मुहम्म्द की तरह चीनी क्रांति का विचारक और सम्राट (तानाशाह) दोनों बनाया। जबकि देंग ने महात्मा गांधी की तरह सर्वोच्च नेता बनते ही शासन करने का दायित्व दूसरों को सौंप दिया। महात्मा गांधी ने वही किया जो चाणक्य पहले कर चुके थे। चाणक्य एक शिक्षक थे। महात्मा गांधी और देंग विजनरी नेता थे। तीनों अपने-अपने समय में नैतिक सत्ता थे। तीनों ने सभ्यतामूलक विमर्श चलाया।

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