Dr Amit Kumar Sharma

लेखक -डा० अमित कुमार शर्मा
समाजशास्त्र विभाग, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली - 110067

कला और धर्म

कला और धर्म

श्रेष्ठ कलाकृतियां हमारी श्रेष्ठतम अनुभूतियों पर प्रस्तुत स्वर- संगति में प्रस्तुत नाद ब्रह्म की अनुकृति होती है।  कलाकृति के सम्मोहन संस्पर्श से हमारे हृदय के सुप्त भावों और संवेदनों के तार झंकृत हो उठते हैं। कलाकृति से संसर्ग की प्रतिक्रिया स्वरूप हम अंतरतम से आंदोलित होकर जागृत हो उठते हैं। हम अनकहे को सुनने लगते हैं। अप्रस्तुत को देखने लगते हैं। रचनाकार ने जो महसूस किया था उसे हम अपने हृदय में महसूस करने लगते हैं। रचना के आह्वान पर भूली- बिसरी पुरानी स्मृतियां हमारे सामने अर्थवत्ता लेकर जागृत हो उठती हैं, भय और लालसाओं द्वारा दबा दी गई वे आशाएं, जिन्हें पहचानने की हिम्मत हममें नहीं होती, नए गौरव के साथ सामने उठ खड़ी होती हैं। हमारा मन वह कैनवास है, जिस पर कलाकार-रचनाकार अपने रंगों से चित्र अंकित करते हैं। हमारे संवाद उनके रंग हैं।

कला में समानधर्मी हृदयों के मिलन से अधिक श्रेष्ठ क्षण दूसरा नहीं होता। इस मिलन के क्षण में कला प्रेमी अपने 'स्व' को पार कर जाता है। अनंत की, अजीम की झलक पा लेता है। इस क्षण में उसकी आनंदानुभूति को शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता। कला धर्म की तरह मानवता का उदात्तीकरण करने लगती है। कलाकृति हमारे लिए उसी हद तक मूल्यवान होती है, जिस हद तक वह हमसे संवाद करती है। हमारी अपनी वैयक्तिकता भी एक हद तक हमारी समझ की सीमा होती है। अंततोगत्वा हम संसार में अपना प्रतिबिंब हीं देखते हैं।

इस्लाम- रामकृष्ण परमहंस, विवेकानंद, गांधी, विनोबा और ओशो रजनीश ने इस्लाम को भी मुक्ति का एक पथ माना है। मूलत: यह भक्ति या प्रेम मार्ग है । कुछ हद तक इसे कर्म मार्ग भी कह सकते हैं। इस्लाम ज्ञान मार्ग नहीं है।

इस्लाम की हिन्दू समाज की विशिष्टता इसके ग्रामीण समुदाय की तुलनात्मक स्वायत्ता में अभिव्यक्ति हुई है, ठीक उसी प्रकार इस्लाम की विशिष्टता इसका Art and craft रहा है। The best of Islam has been expressed and represented in Art and craft. इस्लाम की विशिष्टता उसकी कला एवं शिल्प में अभिव्यक्त हुई है .उसी तरह west की विशिष्टता science and technology एवं Management में अभिव्यक्त हुई है। State-craft and Politics Economy में अभिव्यक्त हुई है। मघ्यकाल में catholic प्रभाव में Art and craft के तरफ झुकाव हुआ था।

इस्लाम की आलोचना उसके externalities को ध्यान में रखकर की गई है। Orientalism के तहत मूलत: इस्लामिक सामंतवाद एवं भोगवाद की आलोचना की गई थी। जिस तरह भारत की जातिव्यवस्था और छुआ-छूत, विधवा आश्रम, आदि की आलोचना की गई थी।

 

हर समाज में बुरे लोग रहते हैं। हर समाज में प्रभु वर्ग विलासी होता है। हर समाज कुछ हद तक अपने प्रभु वर्ग का नियमन करना चाहता हे। यथार्थ में न सही, साहित्य और कला में अपने अन्यायी और अत्याचारी प्रभु वर्ग की कड़ी आलोचना करता है। अपने नयाय प्रिय और संयमशील शासकों को आदरांजली देता है। लेकिन जब राज्य का शासक धर्म का भी शासक बन जाता है तो आम जनता के सामने यथार्थ में सीमित विकल्प बचते हैं। धर्म का शासक जब राजनीति में अपना हित साधने लगता है तब भी यही होता है।

आम मुसलमान अपने बच्चों के स्वास्थ्य या शिक्षा के बारे में बहुत चिंतित नहीं रहता है। उसको लगता है कि अल्लाह सब ठीक करेंगे। वह फैमिली प्लानिंग के कृत्रिम नक्शे नहीं आजमाता। उसके यहां ब्रहमचर्य पर भी जोर नहीं है। वह अपने सनातन धर्म पर आज भी अडिग है। उसे नहीं लगता कि उसके धर्म में परिवर्तन आवश्यक है। उसको नहीं लगता कि दुनिया गुणात्मक रूप से बदल गई है।
आधुनिक दृष्टि से यह चाहे जितना अग्राह्य लगता हो परंतु भारत की पारंपरिक दृष्टि से इसमें क्या गलत है? सिवाय इसके कि वह अन्य धर्मों के प्रति असहिष्णु है। परन्तु यह असहिष्णुता तो पारंपरिक ईसायत, आधुनिक पूंजीवाद और मार्क्सवादी साम्यवाद में भी पाया जाता है। इसमें नया क्या है? यह तो आधुनिक हिन्दु सम्प्रदायों  में भी आ गया है।

 

हिन्दु व्यवस्था सिध्दांतत: दुनिया की सर्वश्रेष्ठ व्यवस्था रही है। लेकिन पिछले 800वर्षों से लगातार विपरीत परिस्थिति झेलते झेलते हमारा व्यावहारिक ताना - बाना जर्जर हो गया है। अंग्रेजी राज तक हमारे बीच अपने आदर्श के लिए मर - मिटने वालों की संख्या निर्णायक थी। अब अवसरवादी लुटेरों की संख्या कम से कम सार्वजनिक जीवन में निर्णायक हो गई है। आम आदमी अपनी सुविधाभर अपने आदर्श पर अब भी चलने की कोशिश करता है लेकिन दबाव बढ़ने पर वह भी समझौता वादी हो जाता है। हिन्दुओं की नई पीढ़ी आधुनिकता की गिरफ़्त में आ चुकी है। इनका लक्ष्य हर हालत में पैसा कमाना और शार्टकट से सफलता प्राप्त करना हो गया है। यह हिन्दु संस्थाओं की आंतरिक कमजोरी के कारण हुआ है। नई पीढ़ी नाम के लिए हिन्दु है परंतु उसके जीवन की प्रेरणा काल्विनवादी है। या, लोकावादी है। साधन - शुचिता अब कोई मुद्दा नहीं रह गया है। खासकर सार्वजनिक जीवन में।

लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि ईश्वर अब महत्वपूर्ण नहीं रहे। इसका यह मतलब नहीं है कि सत्य, न्याय, मंगल, कल्याण या मोक्ष अब मात्र शब्द हैं। आधुनिक मनुष्य, आधुनिक तकनीक और आधुनिक व्यवस्था भी ईश्वरीय लीला का ही विस्तार है। इसका केवल इतना ही अर्थ है कि ईश्वरीय खेल का स्वरूप बदल गया है। ईश्वरीय खेल के नियम बदल गए हैं।

इसका केवल इतना ही मतलब है कि वर्तमान इतिहास के दौर में हिन्दू समाज एक समाज के रूप में अप्रासंगिक होता जा रहा है। हिन्दू समाज एक संक्रमण काल से गुजर रहा है। अभी विश्व इतिहास के निर्णायक खेल में इस्लाम "ईश्वर" का युध्द लड़ रहा है और पूंजीवादी ईसाई सभ्यता 'शैतान' का युध्द लड़ रहा है। इस निर्णायक लड़ाई में दोनों एक-दूसरे को लहु-लुहान करेंगे। दोनों पस्त हो जाएंगे। शायद तब प्रभु की प्रेरणा से हमारे समाज में नवचेतना आए।

अंग्रेजी राज में भारतीय मुसलमानों ने देवबंद में एक गुरूकुल बनाया था। यह एक अद्भुत प्रयास है। इसकी आज भी प्रासंगिकता है। गुरूकुल कांगडी, शांतिनिकेतन एवं बी. एच.यू अप्रासंगिक हो चुके हैं। विवेकानंदवादियों ने अपना नारा जमीन पर नहीं उतारा। शांतिनिकेतन ही उनकी नीतियों के अनुकुल था।

हिन्दुओं की समस्या यह है कि संस्कृत उर्दु की तरह लोक की भाषा नहीं है। बिना भाषा के वे करें तो क्या करें। ले देकर सिनेमा ही संरक्षण- संवर्धन ने जयादा बड़ी भूमिका निभायी है। भाषाओं में विभक्त हिन्दू समाज अपनी संस्कृति के संरक्षण संवर्धन के लिए उपयुक्त शिक्षा का पाठयक्रम का विकास नहीं कर पाया है। यह देश सत्ता और सरकार से निरपेक्ष होकर आनंद में रहता है। प्रकृति ने भारत को अपने में आनंद से रत्त स्वायत्त ईकाई बनाया था जिसमें तीन तरफ से समुद्र और एक तरफ से पहाड़ था। यह तो हमने देश का बंटवारा हो जाने दिया। साथ ही तिब्बत चीन को दे दिया। वर्ना न हम किसी से लड़ते हैं न कोई हम से लड़ता।

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