Dr Amit Kumar Sharma

लेखक -डा० अमित कुमार शर्मा
समाजशास्त्र विभाग, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली - 110067

महात्मा गांधी की पुस्तक हिन्दस्वराज का दार्शनिक आधार

महात्मा गांधी की पुस्तक हिन्दस्वराज का दार्शनिक आधार

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हिन्दस्वराज (1909) को प्रकाशित हुए पूरे सौ वर्ष हो गए । 2009 में हिन्द स्वराज के बहाने गांधी जी के जीवन और कर्म पर कार्यक्रमों का एक सिलसिला शुरू हुआ है जो संभवत: पूरे वर्ष चलेगा । पिछले तीन महीनों में हिन्द स्वराज के पाठ पर बहुत कम चर्चा हुई है । अधिकांश लोग महात्मा गांधी की महानता के गीत गाते हुए गांधी जी के विचारों पर अपने विचारों को लादने लगते हैं । उदाहरण के लिए प्रख्यात समाजशास्त्री योगेन्द्र सिंह ने एक संगोष्ठी में साफ-साफ कहा कि महात्मा गांधी के सांस्कृतिक मूल्यों की रक्षा अत्याधुनिक विज्ञान एवं तकनीक के सहारे हीं संभव है । फिर उन्होंने यह भी  कहा कि गांधी जी पश्चिमी ईसाइयत के सिध्दांतों से प्रभावित थे - खासकर सर्मन ऑन द माउन्ट नई बाइबिल के प्रभाव में 'सफरिंग' तपस या शारीरिक असुविधा का स्वैच्छिक जीवन जीते हुए शुध्दिकरण की प्रक्रिया की वकालत करते थे । गांधी जी को आधुनिकता के समर्थक के रुप में शांतिदूत के रुप में प्रासंगिक बनाने आौर बताने की प्रक्रिया गांधी जी के जीवन में ही शुरु हो गया था । श्री अरविन्दो ने सबसे प्रभावी ढंग से ए.बी. पुरानी से हुई बातचीत के दौरान गांधी को ईसाई तत्ववाद का प्रतिनिधि  साबित करना चाहा था। पश्चिम में भी गांधी को तॉल्सतॉय और रस्किन के भारतीय शिष्य के रुप में चित्रित करने का एक फैशन है । जवाहरलाल नेहरु से योगेन्द्र सिंह और राजमोहन गांधी तक भारतीय मध्यवर्ग में गांधी विमर्श के दौरान हिन्द स्वराज को दरकिनार करके गांधी को आधुनिकता के हिन्दू या भारतीय प्रतिनिधि के रुप में स्थापित करने का आग्रह रहा है । इस वर्ग के लोगों ने हिन्द स्वराज को समकालीन स्वतंत्र भारत के लिए एक अप्रासंगिक, अंवाछनीय कृति के रुप में खारिज करना चाहा है । इसके बावजूद भारत के आम आदमियों और दुनिया के कई बुध्दिजीवियों के लिए हिन्द स्वराज महात्मा गांधी की मूल रचना है । अत: यह समझना आवश्यक है कि भारत के मध्यवर्ग में हिन्द स्वराज के प्रति यह विरक्ति क्यों है ।

राजा राममोहन रॉय से स्वामी विवेकानन्द तक बंगाली भद्रलोक भारतीय अद्वैत वेदांत और पश्चिमी ज्ञान-विज्ञान के बीच समन्वय को भारत के नवजागरण के लिए सबसे जरुरी चीज मानता रहा । जवाहरलाल नेहरु जैसे काश्मीर शैवागम के प्रतिनिधि भी इस समन्वय के समर्थक थे । असल में संसार को माया मानने के कारण शैव एवं शाक्त परम्परा में सांप और नेवला तथा विष ओर अमृत एक साथ रह सकते हैं । फलस्वरुप बंगाल की शाक्त एवं काश्मीर के शैव परम्परा के समकालीन प्रतिनिधियों के लिए भारतीय वेदांत एवं पश्चिमी ज्ञान-विज्ञान में समन्वय के प्रयास में समस्या नहीं दिखती ।
लेकिन वैष्णव परम्परा में संसार भगवान विष्णु के शरीर का विस्तार है । एक जिन्दा शरीर को कायम रखने के लिए भोजन में अमृत चाहिए, विष नहीं चाहिए । इस तत्वचिन्तन की पृष्ठभूमि महात्मा गांधी जैसे वैष्णव को समझने के लिए आवश्यक है । महात्मा गांधी की वैष्णव भक्ति की धारा आचार्य रामानुज के विशिष्टाद्वैत दर्शन से शुरु होती है । हिन्द स्वराज की आधारभूमि इसी वैष्णव भक्ति में निहित है । इस तत्वचिन्तन में समन्वय संभव नहीं है । योगेन्द्र सिंह एवं राजमोहन गांधी जैसे नेहरुवादी विद्वान या बिपनचन्द्र जैसे इतिहासकर भारतीय परम्परा के सम्प्रदायिक स्वरुप के बारे में कृत्रिम सामान्यीकरण करके गांधी और नेहरु को एक ही सांस्कृतिक धारा में चित्रित करने का हठ करते हैं जिसमें हिन्द स्वराज के आधुनिकता विरोधी स्वर को अप्रासंगिक मानना जरुरी हो जाता है । ये लोग गांधी के सत्य के प्रति आग्रह को गौण और अहिंसा के प्रति आग्रह को प्रमुख मानते हैं । जबकि गांधी ने सत्य और अहिंसा को हमेशा एक युग्म माना है । सत्य तक अहिंसक तरीके से पहुंचना गांधी के जीवन और प्रयोगों का लक्ष्य रहा है । सत्य एक लक्ष्य है, अहिंसा एक साधन है । सत्य ईश्वरवाचक है । वह मनुष्य जीवन के यथार्थ में ईश्वरीय संभावना का द्योतक है ।

शंकराचार्य का अद्वैत वेदांत संसार को माया मानकर निवृत्ति मार्ग, निराकर ब्रहम और व्यक्तिगत मोक्ष को जिन्दगी का स्वाभाविक लक्ष्य मानता है । यह दृष्टिकोण पश्चिमी अध्यात्म या स्पीरिचुअलिटी के समतुल्य है । दूसरी ओर, रामानुजाचार्य जैसे वैष्णव आचार्य की नजर में संसार भगवान विष्णु और उनके अवतारों की लीलास्थ्ली है । यह उनके दैवीय स्वरुप या शरीर का ही विस्तार है । अत: प्रवृत्तिमार्ग, साकार ब्रहम और सामुदायिक मंगल की कामना जिन्दगी का स्वाभाविक लक्ष्य है ।
शैव परम्परा सभ्यतामूलक है । इसमें अंर्तविरोध को पचाने की क्षमता है । वैष्णव परम्परा राज्य - मूलक है । शिवजी विष और विषधर तथा बसहा बैल और गंगा को साथ रखते हैं तो पश्चिमी विज्ञान एवं तकनीक को पचाने में क्या परेशानी है ? जब रावण की लंका शिवमय हो सकती है तो आधुनिक पूंजीवाद शिवमय क्यों नहीं हो सकता ? वैष्णव परम्परा में लक्ष्य या साधन की समरुपता पर जोर है । नियमबध्दता पर जोर है । शैव परम्परा में आत्माभिव्यक्ति पर जोर है । वैष्णव परम्परा में समर्पण पर जोर है । शैव परम्परा में शक्ति पात पर जोर है । वैष्णव परम्परा साकार भक्ति का मार्ग है । शैव परम्परा ज्ञानमार्ग और निराकार की साधना है । ऐसा नहीं है कि आधुनिकता और इसको समर्थन देने वाली काल्विन आदि की थियोलॉजी भगवान के अस्तित्व को सिरे से खारिज करती है । काल्विन केवल इतना हीं कहते हैं कि भगवान उसे हीं तारने के लिए चुनतें हैं जो अपना कर्म करता है । भगवान जिसकों चुनतें हैं उसको सांसारिक सफलता देते हैं । यानी सांसारिक सफलता ईश्वर के आर्शीवाद के रुप में मिलता है । इस तरह काल्विन सफलता के लिए होड़ लगाने या प्रतियोगिता करने को सूक्ष्म रुप में आध्यात्मिक काम मानते हैं। काल्विन के यहाँ भारत की तरह कर्म का सिध्दांत नहीं है, होड़ का सिध्दांत है । कर्म के सिध्दांत का संबंध एक ओर पुर्नजन्म की अवधारणा से है तो दूसरी ओर वर्ण व्यवस्था से है । कर्म का सिध्दांत होड़ या प्रतियोगिता को आवश्यक नहीं मानती । कर्म का सिध्दांत यह मानती है कि हर व्यक्ति में एक नैसर्गिक प्रतिभा एवं प्रवृत्ति होती है । हर व्यक्ति का कर्त्तव्य है कि वह अपनी नैसर्गिक प्रतिभा एवं प्रवृत्ति को सही समय पर पहचाने और इस पहचान के आधार पर अपनी भूमिका का निर्वहन करे । सनातनी व्यवस्था व्यक्ति को अपनी भूमिका निभाने का भरपूर मौका देती थी । उसे परंपरा मानने या प्रयोग करने की छूट थी। व्यवस्था में इसके लिए संस्थाएं एवं प्रणालियां बनी हुई थी। इनके सहयोग से पांरपरिक भूमिका या प्रायोगिक भूमिका निभाने में मदद मिलती थी।

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