Dr Amit Kumar Sharma

लेखक -डा० अमित कुमार शर्मा
समाजशास्त्र विभाग, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली - 110067

हिन्दी भाषा एवं हिन्दी प्रदेश की विडंबना

हिन्दी भाषा एवं हिन्दी प्रदेश की विडंबना

 

  लेकिन पहले ऐसी स्थिति नहीं थी। अपने जमाने में प्रेमचंद अपनी कृति के पहले संस्करण की 2.000 प्रतियां छापते थे जबकि उन दिनों साक्षरता 20  प्रतिशत  से भी नीचे थी। अभी चंद साल पहले तक हिन्दी पाठकों में लुकदी साहित्य काफी लोकप्रिय था। जासूसी उपन्यास, सामाजिक उपन्यास आदि की एक - एक पुस्तक के 10,000 से 50,000 तक के संस्करण हाथों -हाथ बिक जाते थे। ऐसे साहित्य के 25 बड़े प्रकाशक थे, तीन दिल्ली में और 22 मेरठ में। ये सभी अब बंद हो चुके हैं। कुछ ऐसा ही हाल पत्रिकाओं का है। हिन्दी में जो पत्रिकाएं निकल रही हैं, वे सांसे गिन रही हैं। हां, हिन्दी में दैनिक समाचार पत्रों की प्रसार संख्या में जरूर अद्भुत वृध्दि हुई है। परन्तु हिन्दी पत्रकारों का एक बड़ा हिस्सा खुद ही नई जानकारियों से वंचित रहता है। हिन्दी में ज्ञानवर्ध्दक पुस्तकों का लंबे समय से अभाव रहा है। हिन्दी के टी. वी. चैनलों की आर्थिक स्थिति अंग्रेजी के टी. वी. चैनलों से काफी अच्छी है। हिन्दी का सिनेमा उद्योग इस देश में सबसे ज्यादा मुनाफा कमाने वाला उद्योग है। हिन्दी में धार्मिक साहित्य और धार्मिक पत्रिकाओं का भी काफी बड़ा बाजार है। हिन्दी  भाषी समाज में चौपाल और बैठकों में समकालीन विमर्श की समृध्द मौखिक परम्परा है। तब हिन्दी में ज्ञानवर्ध्दक पुस्तकों का अकाल क्यों है ? हिन्दी में प्रकाशित पुस्तकों के पाठक कम क्यों हैं ?
इसके निम्नलिखित कारण गिनाये जा सकते हैं। पहला, मध्यकालीन भक्ति आंदोलन के बाद इस देश में सशक्त सांस्कृतिक आंदोलन नहीं हुआ है। दूसरा, हिन्दी भाषी क्षेत्रों में औद्योगीकरण का विकास पश्चिमी एवं दक्षिण भारत की तरह नहीं हुआ है। तीसरा, हिन्दी  भाषी मध्यम वर्ग अंग्रेजी के प्रति ज्यादा आसक्त रहा है और दुभाषिया होने के बावजूद वह अंग्रेजी का ज्ञान हिन्दी में लाने के लिए संकल्पित एवं प्रेरित नहीं है। चौथा, हिन्दी में प्रकाशन एवं वितरण के क्षेत्र में गीता प्रेस गोरखपुर के अलावे कोई राष्ट्रीय स्तर का उद्यमी प्रकाशक अभी तक नहीं आया है।
एक अन्य कारण यह है कि भारत के अन्य 17 भाषाओं वाले क्षेत्र की तुलना में हिन्दी  भाषी क्षेत्र में काफी विविधता रही है। हिन्दी  भाषी इलाके में समुदाय के योगदान और पर्यावरण की विविधता को ध्यान में रखकर सांस्कृतिक एवं साहित्यिक विमर्श स्वतंत्रता के बाद नहीं चला है। हिन्दी भाषा पर हिन्दी साहित्य और हिन्दी साहित्य में वामपंथी आलोचकों का वर्चस्व रहा है। इन लोगों ने वामपंथी विचारधारा के पश्चिमी मानदंडों पर साहित्य और भाषा  के विमर्श का कृत्रिम मूल्यांकण शुरु किया और अपने लेखक संगठनों के द्वारा इसी तरह के साहित्य को प्रोमोट करने लगे। पश्चिमी वामपंथी साहित्य के कृत्रिम अनुवाद एवं आलोचना के विचारधारात्मक साहित्य एवं पुस्तकों के पाठक हिन्दी  भाषी इलाके में ज्यादा नहीं रहे हैं। अत: हिन्दी के संगठित लेखक और आम पाठकों के बीच एक अभेध दीवार खिंचने लगी। 1980 के दशक में वामपंथी संगठनों का हिन्दी में प्रभाव घटने लगा तो 1982 में रंगीन टी. वी. आ गया और 1989 के आसपास विचारधारा मुक्त सिनेमा का हिन्दी में विष्फोट हुआ। 1991 से भारतीय      अर्थव्यवस्था में उदारीकरण का प्रभाव बढ़ा और भारतीय राजनीति में उदारीकरण के नाम पर राजनीतिक सहमति बन गई। जिससे उदारीकरण एवं वैश्वीकरण की विचारधारा फैलाने वाले अखबारों का हिन्दी में अभूतपूर्व प्रचार - प्रसार हुआ। लेकिन हिन्दी  भाषी समाज पर इस उदारीकरण का कुल मिलाकर सकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ा। नई स्थिति में जिन्दगी की जद्दोजहद इतनी बढ़ गई कि जिन्दगी के अर्थ खोजने की बजाय लोग टेलीविजन सीरियलों के विचित्र संसार में समय काटने लगे। यह वह समय था जब हिन्दी  भाषी समाज में देश विमर्श का विष्फोट होना चाहिए था। लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा अब तक नहीं हुआ। एक अजीब प्रकार के ठहराव, इंतजार एवं गतिहीनता ने हिन्दी प्रदेशों के सांस्कृतिक विमर्श में अपनी जगह बना ली। इस जड़ता को कभी क्रिकेट कभी फिल्म और कभी राजनीति के उन्मादी घटनाओं से क्षणभंगुर निजात मिलती लेकिन एक समुदाय एवं समाज के रूप में हिन्दी  भाषी इलाका सांस्कृतिक रूप से बिखरने लगा। उसमें पुस्तकों का रचनात्मक हस्तक्षेप हो सकता था लेकिन युगानुकूल भाषा  में सार्थक पुस्तकों का लेखन और प्रकाशन नहीं हो पाया। जबकि पलायनवादी मनोरंजन के इस दौर में कुछ सकारात्मक फिल्में बनी हैं। सिनेमा और साहित्य की ताकत दर्शक और पाठक की सोच और अभिरूचियों पर आधारित होती है। उनकी व्याख्या कृति में छूपे अर्थ को उजागर करते हुए कुछ ऐसी नई सतह भी उजागर करती है जो शायद कृतिकार के जेहन में भी नहीं होती। पुस्तक के विपरीत सिनेमा की ताकत के स्रोत माध्यम की तरह रहस्यमयी है। एक वाचिक परम्परा वाले समाज में छपी हुई पुस्तक की तुलना में सिनेमा और टेलीविजन का प्रभाव अक्सर पुस्तकों से ज्यादा होती है। भारत के ग्रामीण जीवन पर लिखी गई पुस्तकों की तुलना में बिमल रॉय की हिन्दी फिल्मों दो बीघा जमीन (1953) और परख (1960) ज्यादा बहुआयामी विमर्श प्रस्तुत करती हैं। इसके बावजूद उदारीकरण और वैश्वीकरण के इस दौर में हिन्दी  भाषी जनता की प्रेरणा एवं मार्गदर्शन के लिए सार्थक पुस्तकों की जगह फिल्में नहीं ले सकतीं। एक ऐसे समय में जब नए उदारवाद के जरिये पश्चिम की समुदाय विरोध सोच भारत पर थोपी जा रही है पुस्तकों के द्वारा बौध्दिक हस्तक्षेप जरूरी है। भारत के हर प्रांत में पानी के संरक्षण को लेकर अलग - अलग प्रणालियां रही हैं। दक्षिण में टैंक प्रणाली रही है तो राजस्थान और गुजरात में बावड़ियों की परम्परा रही है। हमारी सभी पंचवर्षीय योजनाओं में इन पध्दतियों को नजरअंदाज करके सिर्फ निजी कंपनियों को लाभ देने और सकल घरेलू उत्पाद में इजाफे पर जोर रहा है। देश के लोग भूखे मर रहे हैं। समाधान एक ही है। हर प्रांत की विविधता को देखते हुए वहां की आवश्यकताओं के अनुसार योजना बनायी जाए। योजना बनाते समय सामाजिक ढांचा, उस जगह की खेती आदि चीजों का ध्यान रखा जाना जरूरी है। पहले लोग मिल - जुलकर जो खुद करते थे, वह अब सरकार स्कीम के तहत करवा रही है। इसके तहत अधिक से अधिक धन आवंटित कराया जाता है ताकि पर्दे के पीछे की आमदनी बढ़ सके राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (नरेगा) का भी एक मकसद यह है कि पूंजी का खेल चलता रहे। किसी भी समस्या का समाधान सामाजिक ढांचे के तहत हो सकता है लेकिन सरकारी स्कीम में ठेकेदारी प्रथा को बढ़ाया जा रहा है ताकि पैसा बनाया जा सके। पानी की सस्या का हल यही है कि इसका उपयोग कम से कम किया जा सके। पानी का सबसे अधिक उपयोग आधुनिक रासायनिक खेती में होता है। जैविक खेती अपना स्वास्थ्य भी जैविक खाने के सेवन से अच्छा रहेगा। बीजों के लिए जरूरी है कि वे किसान के हाथ में रहें, न कि किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी के। बीज का खुद किसान द्वारा प्रजनन किया जाना चाहिए। देश में जितनी जैव विविधा है, उसके जरिये हम अच्छी पैदावार वाली किस्में तैयार कर सकते हैं। हमारे पारंपरिक बीज जलवायु परिवर्तन से लड़ने में समक्ष हैं। जी एम फसलों और कई संकर किस्मों के उपयोग से मिट्टी उपजाऊ नहीं रहेगी तो और ज्यादा रासायनिक खाद डालना पड़ेगा जिससे खेती और खर्चीला तथा कम लाभदायक हो जाएगी। अत: यह आवश्यक है कि उन फसलों को लगाया जाए जिनमें मिट्टी को उसके पोषक तत्व वापस करने की क्षमता हो जैसे हमारी धान, बाजरे की पुरानी किस्में। आंध्रप्रदेश में बहुत से किसान पूरी तरह जैविक खेती करके 50 हजार रूपये से भी अधिक प्रति एकड़ कमा रहा है। इस प्रकार की खेती के लिए प्रशिक्षण का खर्च केवल 100 रूपय प्रति किसान आता है। हिन्दी  भाषी इलाके में खेती मात्र जीविका का साधन नहीं होकर संस्कृति का केन्द्र बिन्दु रहा है। नवपूंजीवादी उदारीकरण साम्यवादी तानाशाही का सही विकल्प नहीं है। हिन्दी भाषी इलाके की भलाई गांधीवादी विचारधारा (सर्वोदय) में है। जब तक सर्वोदय को आधार बनाकर सांस्कृतिक आंदोलन नहीं चलाया जाता तब तक इस इलाके की सामाजिक, सांस्कृतिक एवं आर्थिक विडंबनाओं का समाधान नहीं हो सकता। इसके लिए युगानुकूल साहित्य एवं समालोचना का प्रकाशन आवश्यक है।

 

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