Dr Amit Kumar Sharma

लेखक -डा० अमित कुमार शर्मा
समाजशास्त्र विभाग, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली - 110067

महात्मा गांधी का हिन्द स्वराज

हिन्द स्वराज की प्रासंगिकता

 


महात्मा गांधी का हिन्द स्वराज

गुलाम भारत में संप्रभुता एवं स्वावलंबन के सूत्रो की खोज

खण्ड-क
हिन्द स्वराज का सभ्यतामूलक संदर्भ      
1.  भारत में कांग्रेस संगठन की तत्कालीन (1909) स्थिति

हिन्द स्वराज का सभ्यतामूलक संदर्भ

महात्मा गांधी ने हिन्द स्वराज नवम्बर 1909 में लिखी और दिसम्बर 1909 में उसका प्रकाशन 'इंडियन ओपिनियन' के गुजराती मूल रूप में हुआ। जनवरी 1910 में उसका पुस्तकाकार प्रकाशन हुआ। मार्च 1910 में उसे ब्रिटिश भारत की सरकार ने जब्त कर लिया। उसी महीने में गांधीजी इसे अंग्रेजी में प्रकाशित करने पर विचार कर रहे थे, जब्ती की घोषणा ने इस निर्णय में कुछ शीघ्रता ला दी। इस संस्करण की जब्ती की कोई सूचना नहीं है और इसका प्रकाशन बाद में अनेकश: हो चुका। इस समय प्रचलित आधिाकारिक संस्करण 1939 में प्रकाशित अंग्रेजी संस्करण है। 1909 के मूल से इसमें जो अन्तर हैं उन्हें पाद टिप्पणियों में देते हुए भारत सरकार के प्रकाशन विभाग ने महात्मा गांधी का सम्पूर्ण वाङ्मय में खण्ड 10 में 1963 में छापा है।

एक स्वतंत्र पुस्तिका के रूप में उपलब्धा ''हिन्द स्वराज अथवा इंडियन होम रूल'' अंग्रेजी में उपलब्धा लोकप्रिय पुस्तक है जिसे नवजीवन पब्लिशिंग हाउस, अहमदाबाद ने 1938 में छापा था। इसका संशोधिात संस्करण 1939 में छपा था। तब से इसका लगातार मुद्रण हो रहा है। इसके लेखन का संदर्भ साउथ अफ्रीका में चल रहा सत्याग्रह था जो 1909 में दो वर्षों के अबोधा बच्चे जैसा था। इसके बावजूद इस सत्याग्रह ने महात्मा गांधी को इतनी मात्रा में आत्मबल प्रदान किया कि वे हिन्द स्वराज को प्रकाशित कर सके।

नवजीवन प्रकाशन मंदिर, अहमदाबाद द्वारा हिन्दी में प्रकाशित हिन्द स्वराज के लेखक का नाम गांधीजी एवं अनुवादक का नाम अमृतलाल ठाकोरदास नाणावटी दिया हुआ है। इसका प्रकाशन 1949 में हुआ था। 'दो शब्द' के नाम से इसकी भूमिका काका कालेलकर ने लिखी है। इसी भूमिका में काका कालेलकर ने दो बातें और कही हैं  (1) 'हिन्द स्वराज' की प्रस्तावना में गांधीजी ने स्वयं लिखा है कि व्यक्तिश: उनका सारा प्रयत्न हिन्द स्वराज में बताये हुए आधयात्मिक स्वराज की स्थापना करने के लिए ही है। लेकिन उन्होंने भारत में अनेक साथियों की मदद से स्वराज का जो आंदोलन चलाया, कांग्रेस के जैसी राजनीतिक राष्ट्रीय संस्था का मार्गदर्शन किया, वह उनकी प्रवृत्तिा पार्लियामेन्टरी स्वराज के लिये ही थी'। (2) जिस तरह के आदर्श का गांधीजी ने अपनी किताब हिन्द स्वराज में पुरस्कार किया है, उसको तो स्वतंत्र भारत की सरकार ने अस्वीकार ही किया है। स्वाभाविक है कि इस तरह के नये भारत में अंग्रेजी भाषा का हीं बोलबाला रहे। विज्ञान-परायण राष्ट्रों की मदद से भारत यंत्र-संस्कृति में जोरों से आगे बढ़ रहा है। पू0 गांधीजी के विचार जैसे हैं, वैसे नहीं चल सकते। यह नई निष्ठा केवल नेहरूजी की नहीं, किन्तु करीब-करीब सारे राष्ट्र की है। श्री विनोबा भावे गांधीजी के आत्मवाद का, सर्वोदय का और अहिंसक शोषण-विहीन समाज-रचना का जोरों से पुरस्कार कर रहे हैं। लेकिन उन्होंने भी देख लिया है कि पश्चिम के विज्ञान और यंत्र-कौशल के बिना सर्वोदय अधाूरा ही रहेगा।

14 जुलाई 1938 को अंग्रेजी मासिक पत्रिका 'आर्यन पाथ' के सितम्बर 1938 विशेषांक (हिन्द स्वराज अंक) के लिए भेजे संदेश में मोहनदास करमचंद गांधी लिखते हैं कि 1909 में लिखी गई हिन्द स्वराज की गुजराती मूल के बारे में उनके एक स्वर्गीय मित्र की राय थी कि 'यह एक मूर्ख आदमी की रचना है'। उन्होंने यह भी लिखा है - ''अंग्रेजी आवृत्तिा गुजराती का तरजुमा है। यह पुस्तक अगर आज मुझे फिर लिखनी हो, तो कहीं कहीं मैं उसकी भाषा बदलूँगा। लेकिन इसे लिखने के बाद जो 30 साल मैनें अनेक आंधिायों में बिताये हैं, उनमें मुझे इस पुस्तक में बताये हुए विचारों में फेरबदल करने का कुछ भी कारण नहीं मिला।''

यंग इंडिया के जनवरी 1921 अंक में उन्होंने लिखा कि ''इस किताब में 'आधुनिक सभ्यता' की सख्त टीका की गई है, वह आज पहले से ज्यादा मजबूत बनी है। मुझे लगता है कि अगर हिन्दुस्तान 'आधुनिक सभ्यता' का त्याग करेगा, तो उससे उसे लाभ ही होगा।'' इसी लेख में उन्होंने यह भी लिखा है  कि ''मैं जानता हूँ कि अभी हिन्दुस्तान उसके लिए तैयार नहीं है लेकिन मुझे तो पक्का विश्वास है कि इसमें जिस स्वराज की तस्वीर मैनें खींची है, वैसा स्वराज पाने की मेरी निजी कोशिश जरूर चल रही है।'' इसकी ओर संकेत करते हुए उन्होने अंत में यह भी लिख दिया कि ''हिन्दुस्तान अगर प्रेम के सिद्वांत को अपने धार्म के एक सक्रिय अंश के रूप में स्वीकार करे और उसे अपनी राजनीति में शामिल करे, तो स्वराज स्वर्ग से हिन्दुस्तान की धारती पर उतरेगा।''

गांधीजी को मालूम था कि उनकी छोटी पुस्तिका के बारे में 1909 से 1921 तक किस तरह की चर्चा होती रही थी अत: उन्होंने यंग इंडिया के उसी लेख में लिख दिया कि ''मैंने इस मतलब के लेख भी देखे हैं कि मैं कोई गहरी चाल चल रहा हूँ, आज की उथल-पुथल से लाभ उठाकर अपने अजीब ख्याल भारत के सिर लादने की कोशिश कर रहा हूँ और हिन्दुस्तान को नुकसान पहुँचाकर अपने धार्मिक प्रयोग कर रहा हूँ। इसका मेरे पास यही जवाब है कि सत्याग्रह ऐसी कोई कच्ची खोखली चीज नहीं है। उसमें कुछ भी दुराव-छिपाव नहीं है, उसमें कुछ भी गुप्तता नहीं है।''

22 नवंबर 1909 को लिखी प्रस्तावना में गांधीजी दो बातों पर जोर देते हैं (1) जब मुझसे रहा ही नहीं गया तभी मैंने यह (हिन्द स्वराज के 20 अधयाय) लिखा है। बहुत पढा, बहुत सोचा, बहुत लोगों के साथ सोचा-विचारा। अंग्रेजों से भी मिला; (2) जो विचार इसमें रखे गये हैं वे इस हद तक मेरे हैं क्योंकि मैं उनके मुताबिक बरतने का उम्मीद करता हूँ; वे मेरी आत्मा में गढ़े-जड़े हुए जैसे हैं। वे मेरे नहीं हैं, क्योंकि सिर्फ मैंने ही उन्हें सोचा हो सो बात नहीं है। कुछ किताबें पढ़ने के बाद वे बने हैं। दिल में भीतर ही भीतर मैं जो महसूस करता था, उसका इन किताबों ने समर्थन किया। हिन्दुस्तान में जिन पर पश्चिमी सभ्यता की धुन सवार नहीं हुई है ऐसे बहुतेरे हिन्दुस्तानियों के विचार तो ऐसे हैं ही लेकिन यही विचार यूरोप के हजारों लोगों के हैं।

1. भारत में कांग्रेस संगठन की तत्कालीन (1909) स्थिति :

हिन्द स्वराज के पहले अधयाय का शीर्षक 'कांग्रेस और उसके कर्ता-धर्ता हैं। इक्कीसवीं सदी के पहले दशक में नई पीढी क़े पाठकों को हिन्द स्वराज का पहला अधयाय थोड़ा अप्रासंगिक; असंबध्द एवं नीरस लग सकता है। हिन्द स्वराज के मूल स्वर एवं संदेश से एक नजर में इसका कोई प्रत्यक्ष संबंधा नही दिखता। परंपरा में रसे-पगे लोग, हालांकि, बखूबी जानते हैं कि हिन्द स्वराज के पहले अधयाय का हिन्द स्वराज में करीब-करीब वही संरचनात्मक महत्तव है जो श्रीमद्भगवद्गीता में उसके पहले अधयाय का महत्तव है। यह तथ्य गौर-तलब है कि 'रघुपति राघव राजा राम' गाने वाले और 'राम राज्य' की बात करने वाले महात्मा गांधी की प्रेरणादायी पुस्तक न तो रामचरित मानस रही है और न योगवासिष्ठ। उनकी प्रेरणादायी पुस्तक श्रीकृष्ण-अर्जुन संवाद केन्द्रित 'भगवद्गीता' ही रही है। उन्होंने गीता पर प्रवचन किया है जिसको महादेव देसाई एवं विनोबा भावे ने अपनी-अपनी दृष्टि से गीता पर शंकर, रामानुज, मधव जैसे पारंपरिक आचार्यों की कोटि में रखने लायक भाष्य माना है।

हिन्द स्वराज के पहले अधयाय में 'पाठक' कांग्रेस के गरमपंथी समूह (तिलकवादी गुट) का कार्र्यकत्ता है। वह नरमपंथी समूह के दादाभाई नौरोजी, गोपालकृष्ण गोखले, बदरूद्दीन तैय्यबजी के विचारों से सहमत नहीं है और उन्हें अपना नहीं समझता। वह 'संपादक' (गांधीजी) के विचार जानने के लिए उतावला है। संपादक (गांधीजी) कहते हैं, ''आप अधीर हो गए हैं। मैं अधीरपन बरदाश्त नहीं कर सकता। आप जरा सब्र करेंगे तो आपको जो चाहिए वही मिलेगा। उतावली से आम नहीं पकते, दाल नहीं पकती। आपको हिन्द पर उपकार करने वालों की बात भी सुननी अच्छी नहीं लगती, यह बताता है कि अभी आपके लिए स्वराज दूर है।'' वे आगे कहते हैं कि नौरोजी हमारे दादा समान हैं (भीष्म पितामह?) और गोखलेजी पिता समान हैं। वे ए. ओ. ह्यूम तथा विलियम वेडरबर्न को गुरू समान (द्रोणाचार्य एवं कृपाचार्य?) मानते हैं तथा साफ-साफ कहते हैं कि ''स्वराज भोगने की इच्छा रखने वाली प्रजा अपने बुजुर्गों का तिरस्कार नहीं कर सकती। अगर दूसरों की इज्जत करने की आदत हम खो बैठें, तो हम निकम्मे हो जायेंगे। जो प्रौढ़ और तजुर्बेकार हैं, वे ही स्वराज भोग सकते हैं, न कि बे-लगाम लोग।'' फिर वे कहते हैं कि ''दूसरों के खयाल गलत और हमारे ही सही हैं, या हमारे खयालों के मुताबिक न बरतनेवाले देश के दुश्मन हैं, ऐसा मान लेना बुरी भावना है।''

मिथकों की भाषा में रसे-पगे पाठकों को ऐसा लग सकता  है मानो 'संपादक' नहीं अर्जुन स्वर्ग से धारती पर लौट आये हों और जनमेजय के नागयज्ञ की तैयारी से पहले की स्थिति में वे पाठक रूपी जनमेजय समर्थक को राज्य और (स्वराज-कामी व्यक्तियों के) राष्ट्र का अन्तर समझा रहे हों! गीता के आख्यान में भगवान श्रीकृष्ण ने शास्त्रीय तर्क का सहारा लेकर विरोधी सेना में अपने स्वजनों और गुरूजनों को देखकर राज्य कामना की तुच्छता का अहसास करके युध्द नहीं करने की मन:स्थिति में पहुंच चुके अर्जुन को युध्द करने के लिए प्रेरित किया था। जबकि हिन्द स्वराज के प्रथम अधयाय में संपादक महोदय विरोधिायों और दूसरों को स्वजनों एवं गुरूजनों के रूप में स्वीकार कर उन्हें आदर एवं सम्मान देने की अपील करते हैं। संपादक महोदय अपनी दृष्टि में आम आदमी एवं लोकपक्ष का तर्क प्रस्तुत करते हैं।

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