Dr Amit Kumar Sharma

लेखक -डा० अमित कुमार शर्मा
समाजशास्त्र विभाग, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली - 110067

भारतीय सिनेमा का लोकशास्त्र

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भारतीय सिनेमा का लोकशास्त्र

 

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धीरे-धीरे हॉलीवुड की फिल्मों ने यूरोपीय फिल्म निर्माण को बेहतर तकनीक, बेहतर शिल्प एवं मिशनरी भावना से यूरोपीय दर्शकों एवं यूरोपीय सिनेमाघरों के लिए अप्रासंगिक एवं अनाकर्षक बना दिया। कुछ यूरोपीय समीक्षकों के अनुसार हॉलीवुड की फिल्में अमेरिका में बसे यहुदियों का यूरोपीय ईसाइयत के खिलाफ शुरू किया गया सांस्कृतिक जेहाद है। दूसरी ओर भारत के आम दर्शकों को सिनेमा हॉल का अंधेरा मंदिरों के गर्भगृह की स्मृति देता है। फिल्म की कथानक (नैरेटिव) में रामायण, महाभारत, श्रीमद् भागवत या जातक कथाओं के तत्व होते हैं। भारतीय पूजा पध्दति की तरह हमारी फिल्मों में भी अक्सर गीत-संगीत का तत्व होता है। हर नायक में कृष्ण् और हर नायिका राधा या गोपी होती है। हर विरहिनी मीरा या गोपियों के गीत गाती है। भारतीय सिनेमा पारम्परिक लोकजीवन का ही विस्तार है। यह जानबूझ कर व्यवस्थित तरीके से या योजनाबध्द तरीके से नहीं किया गया। यह अपने आप हुआ है, अवचेतन के स्तर पर हुआ है। इसके विपरीत देश के विश्वविद्यालयों या अंग्रेजी मीडिया को सत्ता-प्रतिष्ठान से, अंग्रेजी- राज के दौरान से ही, व्यवस्थित साधन, साधक, निर्देश, मार्गदर्शन एवं संपोषण मिलता रहा है। अंग्रेजीराज के समय से लोक जीवन और लोकशास्त्रों को हिकारत के भाव से देखा जाता रहा है। लेकिन भारतीय सिनेमा ने लोकजीवन और लोकशास्त्रों से तादात्म्य स्थापित किया। भारतीय संस्कृति के लोकपक्ष के संरक्षण-संवर्ध्दन में तथा लोक रीति के असंतुलित पक्षों की समीक्षा में भारतीय सिनेमा की भूमिका भारतीय राज्य और भारतीय विश्वविद्यालयों से ज्यादा रही है। भारतीय राज्य और भारतीय विश्वविद्यालय पश्चिमी शास्त्रों की ओर उन्मुख होकर अपना विर्मश और व्यापार चलाते रहे हैं जबकि भारतीय सिनेमा कुछेक अपवादों एवं अतिरेकों के बावजूद इस देश के लोक और शास्त्र से संवाद बनाकर अपना विमर्श एवं व्यापार चलाता रहा है। यही कारण है कि भारत में सिनेमा इतना लोकप्रिय और इतना सशक्त माध्यम है। लेकिन आज तक भारतीय विश्वविद्यालयों में सिनेमा को एक विषय एवं प्रभावी जनसंचार माध्यम के रूप में महत्व नहीं मिला। हमेशा इसे ''हेय मनोरंजन'' का साधन मानकर, विश्वविद्यालय के बाहर की चीज मानकर अपने भरोसे जीने मरने के लिए छोड़ दिया गया। यह तो भारतीय सिनेमा की जीवंतता और आंतरिक ऊर्जा है जिसने खुद अपने अस्तित्व की रक्षा की है, अपना पालन-पोषण किया है। अपनी वैश्विक पहचान बनायी और उभरते हुए भारत की सबसे प्रमुख सांस्कृतिक पहचान बन गई है।

अत: भारतीय सिनेमा के स्वरूप और भारतीय दर्शकों से इसके रागात्मक संबंधों को समझना आवश्यक है। इस रागात्मक संबंध का एक इतिहास और समाजशास्त्र है। इसका एक सौन्दर्यशास्त्र और तत्व मीमांसा है। ''अंधेरे से  प्रकाश'' (तमसो मा ज्योर्तिगमय) वह सूत्र है जो इसको समझने में सहायक है। अधिकांश भारतीय दर्शकों को सिनेमा हॉल का अंधेरा और अंधेरे में प्रकाशित लीलात्मक कथानक का पारम्परिक मंदिर के गर्भगृह में देवमूर्ति और श्रध्दालु भक्त के रागात्मक - आध्यात्मिक संबंध से अवचेतन स्तर पर संबंध दिखता है। फिल्मी कथानक आध्यात्मिक लीला प्रसंग की अनुकृति है। उसकी स्मृति एवं अनुगूँज है। सिनेमागृह के अंधेरे में दर्शकों की भीड़ में भी हर दर्शक 'फिल्म के पाठ' से, फिल्म के कथानक से, कथानक के यथार्थ और संभावना यानि सत्य से एक अपरोक्ष संवाद बनाता है। हर अच्छी या कुमारस्वामी के शब्दों में कहें तो हर
''नार्मल'' (सामान्य) फिल्म अंधेरे में एक परिस्थिति पैदा करती है कि व्यक्ति अपने ''प्रिय ब्रह्म'' (आत्म ब्रह्म) का साक्षात्कार कर सके। सामान्यत: वह फिल्म लोकप्रिय (हिट) हो जाती है जिसमें आत्मसाक्षात्कार या आत्मानुभूति से उपजा एक सहज संवाद (वन लाइनर) भी होता है। इसे सूत्र वाक्य भी कह सकते हैं। यह 'सूत्र वाक्य' चिंगारी का काम करता है। मंत्र की तरह काम करता है। टी. वी. ऐंटिना की तरह काम करता है। वह हर दर्शक के भीतर सैंकड़ाें ''चेन रियेक्सन'' पैदा करता है। वह दर्शक (दर्शकों) को अपने युग से, युग - सत्य से, अपनी सुप्त संभावनाओं से, असीम संभावनाओं से साक्षात्कार कराता है। इसी अर्थ में भरतमुनि, अभिनवगुप्त, कुमारस्वामी जैसे लोग कला को ब्रह्म से आत्मा का संवाद मानते हैं। इसी अर्थ में कला ब्रह्म - सहोदर है। भारत में फिल्म भी सामान्यत: एक कला ही है। हिमांशुराय, शशधर मुखर्जी से लेकर आदित्य चोपडा, रामगोपाल वर्मा, महेशभट्ट आदि की कोशिशों के बाद भी भारत में फिल्म हॉलीवुड की तरह एक सांस्कृतिक उत्पाद भर नहीं बन पाया है। कम से कम दर्शकों ने इसे सांस्कृतिक उत्पाद के रूप में अभी तक नहीं स्वीकारा है। भारतीय दर्शक और अधिकांश स्वतंत्र फिल्मकार फिल्म को भारत में आज भी कला रूप ही मानते हैं और हर सफल फिल्म में आधुनिक तकनीक और पारंपरिक कला मूल्यों का समन्वय एवं तादात्म्य किसी न किसी रूप में स्थापित 'किया जाता है' या 'हो जाता है'।

भारतीय दृष्टि में अंतत: अधिकांश फिल्मकार एक समकालीन ऋषि की तरह व्यवहार करता है। हर फिल्म एक प्रकार से उसकी साधना और सिध्दावस्था का प्रकटीकरण (मैनिफेस्टेशन) है। कोई भी ऋषि अपना सत्य दूसरों पर आरोपित नहीं करना चाहता। दूसरों के सत्य को स्वीकारने में उसे कोई दिक्कत नहीं होती। चूंकि सत्य तो अद्वैत होता है चाहे उस सत्य को कोई अपना बोल रहा हो या पराया। सत्यानुभूति में अद्वैत है। केवल असत्य में द्वैत है। द्वैत में विरह और वियोग है। इसलिए सत्यानुभूति के आग्रही दर्शक फिल्म के अंत में मिलन, अद्वैत, सत्यम् शिवम् सुन्दरम् देखना चाहते हैं। सत्य, न्याय, दैवीय शक्तियों की जीत देखना चाहते हैं। टे्रजडी नहीं देखना चाहते। दुखांत फिल्में, त्रासदीदायक फिल्में, असत्य, अन्याय, असंतुलित फिल्में सामान्यत: इस देश में सफल नहीं होतीं। विदेश में बसे भारतीयों या पश्चिमपरस्त दर्शकों में लोकप्रिय हो सकती हैं लेकिन आम भारतीय ऐसी फिल्मों को नकार देते हैं।

पश्चिम में टे्रजडी काफी लोकप्रिय रहा है। प्राचीन यूनान की परम्परा में, रोम की परम्परा में, शेक्सपियर के नाटकों में ट्रेजडी कला का श्रेष्ठरूप है। चाहे आप अरस्तु के सौन्दर्यशास्त्र को देखें या हीगेल का या फिर नित्से के सौन्दर्यशास्त्र को ही देख लें पश्चिमी मानस ट्रेजडी की उत्कृष्टता से अभिभूत है। इसी तरह फ्रांसीसी और इटालवी सिनेमा में यथार्थवाद या नवयथार्थवाद सिनेमा का सबसे प्रतिष्ठित रूप रहा है। लेकिन भारत में ऐसी फिल्मों को सामान्यत: बहुत उत्कृष्ट और सफल फिल्मों की श्रेणी में नहीं रखा जाता। पश्चिमी फैशन से प्रेरित ऐसी फिल्में समानांतर सिनेमा ( 1969 के आसपास शुरू हुए तथाकथित नया अथवा ''बौध्दिक एवं कलात्मक'' सिनेमा) की श्रेणी में आती हैं। इन्हें भारत में सीमित दर्शक ही मिल पाया। ऐसे फिल्मकार दर्शकों की समझ को दोष देते हैं। दरअसल भारतीय परिवेश में ऐसी फिल्मों को दर्शक नही मिलने के पीछे ठोस समाजशास्त्रीय कारण रहे हैं। दरअसल फ्रांस और इटली में सिनेमा का संबंध आधुनिकता से है। यह परम्परा के साथ उस रूप में नहीं जुड़ा है जिस रूप में भारत में जुड़ा है। यूरोप में पारम्परिक संस्थायें एवं पारम्परिक लोग अब बचे ही नहीं हैं। वहां परम्परा एक ' नोस्टालजिया ' के रूप में या म्यूजियम में प्रदर्शन के लिए रखी गई वस्तु के रूप में ही जिंदा है। यूनानी परम्परा में ट्रेजडी पैगन विश्वदृष्टि में एक अलग अर्थ रखता था। फ्रांसीसी या इटालियन यथार्थवादी - नवयथार्थवादी सिनेमा में इसका एक अलग अर्थ है। यूनानी परम्परा में ट्रेजडी का एक अतिमानवीय अर्थ था। मध्यकालीन ईसाइयत ने ट्रेजडी (त्रासदी) को एक अन्य अर्थ दिया था। आधुनिकता की विचारधारा और औद्योगिक पूंजीवादी प्रजातंत्र में त्रासदी का अर्थ गुणात्मक रूप से बदल जाता है। ओपेरा की फ्रांसीसी परम्परा और पेंटिग की इटालवी परम्परा से पश्चिमी यथार्थवादी परम्परा का जो संबंध है वह फ्रांसीसी या इटालवी सिनेमा मे देखा जा सकता है। लेकिन भारतीय सिनेमा का पारसी थियेटर से या भारतीय चित्रकला से वैसा संबंध नहीं है। भारतीय सिनेमा का संबंध लोक संस्कृति, लोक संगीत और कथाकीर्तन - भजन और मंदिरों में प्रवेश कर आत्मानुभूति प्राप्त करने की परम्परा से ज्यादा है। इसलिए आत्मविभोर दर्शक कभी सीटी बजाने लगता है और कभी ताली, कभी पैसा फेंकने लगता है और कभी हो-हो करने लगता है। कभी नायक - नायिका की पूजा करने के लिए मंदिर बनाने लगता है और कभी फैन क्लब बनाकर समाज सेवा और राजनीति करने लग जाता है। 

भारतीय सौन्दर्यशास्त्र केन्द्रित सिनेमा - अध्ययन का अभी व्यवस्थित विकास नहीं हुआ है लेकिन 1913 से लेकर 2006 तक की सफल-असफल (दर्शक संख्या के आधार पर) फिल्मों के तुलनात्मक समाजशास्त्रीय उपकल्पना के आधार पर एक कामचलाऊ - (जुगाड़ु) सामान्यीकरण किया जा सकता है कि पश्चिमी ढंग के यथार्थवादी एवं नवयथार्थवादी फिल्मों को भारतीय दर्शको का वैसा समर्थन नहीं मिल पाता जैसा आधुनिक पश्चिम के सिने दर्शकों के द्वारा उन्हें मिलता है। इसका कारण यह नहीं है कि भारत के दर्शक अनाड़ी हैं और एक अच्छी फिल्म को प्रोत्साहन नहीं देते। बल्कि इसका कारण यह है कि भारतीय दर्शकों के लिए नई तकनीक में प्रस्तुत् होने के बावजूद सिनेमा उसकी जानी-पहचानी अपनी चीज है जिसकी इस देश के हजारों वर्षों के वाचिक परम्परा और कथा वाचन एवं कथा श्रवण की लोक परम्परा एवं लोक संस्कृति से गहरा संबंध है। जबकि पश्चिम में परम्परा और पारम्परिक संस्कृति का आधुनिक दर्शकों एवं आधुनिक सिनेमा से कोई जीवंत रिश्ता ही नहीं हैं। अंग्रेजी राज में विकसित भारतीय साहित्य का भारतीय समाज से वैसा जीवंत संबंध आज तक विकसित नहीं हो पाया जितना भारतीय सिनेमा का 1913 से स्थापित हो गया था। भारतीय दर्शकों ने सिनेमा को पहली नजर में ही दिल दे दिया। ऐसा प्यार केवल भक्त कवियों एवं सूफी गायकों को ही मिला है। अत: भारतीय दर्शकों को दोष देने की बजाय यथार्थवादी या नवयथार्थवादी सिनमा की अभारतीयता को ठीक से समझने की आवश्यकता है। भारतीय समाज में ''यथार्थ'' सत्य का एक अंश या रूप मात्र है। यथार्थ को या यथार्थ के अध्यन को आधुनिक यूरोपीय मानववाद एवं मानववादी इतिहास, दर्शन एवं समाज विज्ञानों ने एक खास स्वरूप प्रदान किया है। यूरोप के आधुनिक विमर्श में सत्य या न्यूमेना को कोई स्थान प्राप्त नहीं है। वहां यथार्थ या फेनोमेना का ही महत्व है। यहां ध्यान रखना आवश्यक है कि भारत में यथार्थ न्यूमेना का ही अंश या रूप है। जबकि पश्चिम में यथार्थ फेनोमेना का रूप है। पश्चिम में यथार्थ वह है जिसे इतिहासकार की अध्यन प्रणाली एवं अवधारणायें यथार्थ मानती हैं। जो इतिहासकार छोड़ देता है या जो उसकी अवधारणाओं से संगति नहीं रखती उसे वह मिथक, कल्पना या असत्य कहकर खारिज कर देता है। भारत में जब सिनेमा का जन्म एवं विकास हुआ (1913 से 1947) उस वक्त भारत में अंग्रजी राज था। देश में स्वाधीनता आंदोलन चल रहा था। 1913 से 1920 तक के स्वाधीनता आंदोलन पर कांग्रेस के गरम दल का सबसे ज्यादा प्रभाव था। बालगंगाधर तिलक उस युग के सबसे बड़े नेता एवं प्रेरणा पुरूष थे। दादा साहब फाल्के और प्रभात फिल्म कंपनी पर तो स्वतंत्रता आंदोलन का प्रभाव था ही, रणजीत मूवीटोन, न्यू थियेटर्स और मिनर्वा मूवीटोन पर भी स्वतंत्रता आंदोलन का कम प्रभाव नहीं था। अत: जिसे अंग्रेजीदां लोग भारतीय दर्शकों एवं फिल्मकारों की नासमझी मानते हैं वह एक प्रकार के सांस्कृतिक विमर्श के वैकल्पिक व्याकरण एवं वैकल्पिक सौंदर्यशास्त्र से निकला प्रतिरोधी आख्यान है जिसे स्वदेशी आंदोलन और स्वाभिमानी साधना ने सींचा था।  इस दृष्टि से देखने पर यथार्थवादी सिनेमा और इसको बनाने वाला फिल्मकार निम्न श्रेणी में आता है। यह कला और कलाकार की प्रारंभिक अवस्था का द्योतक है। जब एक कला और सांस्कृतिक साधन के रूप में सिनेमा किसी देश में जन्म लेता है तो यथार्थवादी सिनेमा की बाढ़ आती है। एक नया - नया फिल्मकार जब फिल्म बनाना सीख रहा होता है, जब फिल्म की तकनीक और शिल्प से उसे नया - नया रोमांस होता है तो वह यथार्थवादी या नवयथार्थवादी सिनेमा बनाता है। वह रियलिटी को डाक्युमेंट करता है। रियलिटी पर एक रिपोर्ट प्रस्तुत करता है। भारतीय दृष्टि से यह सागर को गागर में भरने की हिमाकत है जो उस्ताद-शागिर्द परम्परा के कमजोर पड़ने या लुप्त होने की स्थिति का द्योतक है। यह ''नीम हकीम खतरे जान'' की कहावत की प्रासंगिकता की स्थिति है। यह कुएं के मेढ़क का आत्मालाप है कि उसने 'पुन: सृजन' नहीं 'सृजन' किया है, 'अनुकृति' नहीं, 'कृति' बनायी है। भारत में ऐसी फिल्मों को लोक स्वीकार नहीं करता है। लोक में वही सिनेमा स्वीकृत होता है जो सत्य (मिथक + यथार्थ + संभावित यथार्थ) से संवादित होता है। जो सत्य को निवेदित होता है।

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