Dr Amit Kumar Sharma

लेखक -डा० अमित कुमार शर्मा
समाजशास्त्र विभाग, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली - 110067

छायावाद का वास्तविक स्वरूप

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छायावाद का वास्तविक स्वरूप

 

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हिन्दी साहित्य में छायावाद का अंकुरण रीतिकालीन काव्य, निवृत्ति मार्गी भाव और सूफी श्रृंगार के साथ-साथ अंग्रेजी राज के पूंजीवादी उपभोक्तावाद के परिमार्जन की भूमिका के साथ हुआ। इस दौरान हिन्दी साहित्य का एक नया रूप बनने लगा। नये रूप, नई उपमाएं सामने आईं। काव्य में भी रोमांटिक प्रवृत्ति का उदय हुआ। छायावाद विशेष रूप से हिन्दी साहित्य के उत्थान की वह धारा हैं जो लगभग 1917 से 47 के बीच हिन्दी साहित्य की प्रमुख युगवाणी रही। जयशंकरप्रसाद(1889-1937ई.),सूर्यकांतत्रिपाठीनिराला (1896-1961ई.) सुमित्रनदंनपंत (1900-1977ई.) महादेवीवर्मा (1907-1987ई.) और प्रेमचंद इस युग के प्रमुख साहित्यकार के रूप में स्थापित हुए। अज्ञेय के अनुसार छायावाद भारतीय रोमांटिकवाद था। उदार, सुन्दर प्रकृति के प्रति आश्चर्य इसमें था, पर भाग्यवादी पात्र इसमें नहीं थे। रोमांटिकवाद का सबल ईश्वरवादी सारतत्व इसमें अन्तर्निहित था। प्रारम्भिक रोमांटिकवाद और भारतीय दर्शन के संश्लेषण का मिश्रण था छायावाद।

छायावादी कविता और प्रेमचंद की कहानी और उपन्यासों के तुलनात्मक अध्ययन में इस युग के भारतीय समाज का कई अन्तर्विरोध सामने आता है। भारत में विकसित हो रहे पूंजीवादी विकास, राष्ट्रीय आत्मचेतना के जागरण तथा औपनिवेशिक और सामन्तवादी उत्पीड़न के विरुध्द व्यापक संघर्ष के प्रभाव के साथ - साथ 1919 - 1922 के राष्ट्रव्यापी आंदोलन की पराजय का प्रतिनिधित्व भी इसमें हुआ था। 1914 से प्रथम विश्वयुध्द शुरू हो गया था। 1917 से महात्मा गांधी का प्रभाव भारतीय राजनीति में बढ़ने लगा था। चौरीचौरा कांड के हिंसक प्रभाव को ध्यान में रखकर गांधी जी ने असहयोग आंदोलन को 1922 में स्थगित कर दिया। इससे भारत के कुछ बुध्दिजीवियों में गहरी निराशा और उदासी छा गई थी। 1920 के आसपास निराला ने लिखा, ''मनुष्यों की मुक्ति की तरह कविता की भी मुक्ति होती है। मनुष्यों की मुक्ति कर्मों के बन्धन से छुटकारा पाना है और कविता की मुक्ति छंदों के शासन से अलग हो जाना है।''भारतीय राजनीति में गांधी युग और हिन्दी साहित्य में छायावादी युग एक ही काल की उपज है। साहित्य रूपों के नवीकरण के मार्गों की खोज, रूढ़िगत बिम्बों को नये सिरे से समझने का प्रयास, भावावेगों की असाधारण प्रचुरता, प्राकृतिक सौन्दर्य की तीव्र अनुभूति, ओजपूर्ण, अभिव्यंजनात्म्क भाषा, कलात्मक गद्य आदि इस काल के हिन्दी साहित्यकारों की स्वाभाविक विशिष्टताएं थीं। छायावादी कवि भी सुन्दर, चिरयुवा प्रकृति को प्रस्तुत करते थे। प्रकृति के निरन्तर परिवर्तन और अभिनवीकरण को छायावाद में विश्व की चैतन्यशीलता - संबंधी विचार से, चेतनाधारा की निरन्तर गति से संबध्द किया जाता था। यह धारणा व्याप्त हुई कि यह गति मनुष्य और प्रकृति में व्याप्त है और उन्हें अभिन्न एकत्व (अद्वैत) में जोड़ती है। पंत के अनुसार, ''सारा विश्व एक बहती हुई सजीव नदी है। प्रकृति मनोहारिणी तो सदा ही रही है। मेरे लिए वह चिरजीवन - संगिनी और अखंड प्रेरणास्रोत रही है।'' छायावादी कवियों की रचनाएं पारंपरिक भारतीय रचनाओं (कालिदास, जयदेव, विद्यापति, तुलसीदास, सूरदास) से इस बात में ऊपरी तौर पर भिन्न दिखती हैं कि उनमें प्रकृतिचित्रण अपने आप में ध्येय नहीं होता, अपितु मानवीय भावनाओं से पूर्ण होता है। छायावादी रचनाओं में प्राकृतिक चित्रों के माध्यम से मानवी भावनाओं और अनुभूतियों के जगत को समझने का प्रयास प्रमुख विशेषता बनकर उभरता है। श्री अरविन्दो के अनुसार ''प्रकृति का यह रम्य अंचल कवि की कल्पना - भावना आदि का मनोहर विहार - स्थल था। इस प्रशान्त हरीतिमा में उसे कभी मां की ममता भरी मूर्ति मिलती, कभी सहचरी सखी का स्नेह भरा सौन्दर्य मिलता और कभी अनुरागमयी बहन का सौम्य रूप दिखता, कभी ऋषियों की आशीषवाणी , कभी गुरु का गंभीर संदेश और मित्र की शुभकामना दिखती।'' वास्तव में छायावाद ऊपर से जितना नया और मौलिक दिखता है, उससे कहीं अधिक इसके भीतर आधुनिकता और परम्परा के बीच के भारतीय द्वंद्व एवं संश्लेषण का युगीन अभिव्यक्ति है। इसमें परम्परा का पुनर्नवीनीकरण ही हुआ। निराला पर श्रीरामकृष्ण परमहंस एवं विवेकानंद का प्रभाव था। प्रसाद काश्मीर शैवागम और अभिनवगुप्त से प्रभावित थे। पंत पर श्री अरविन्दो का प्रभाव था। महादेवी पर मीराबाई का प्रभाव था। प्रेमचंद पर महात्मा गांधी और दयानंद सरस्वती का प्रभाव था। दुर्भाग्य से अब तक छायावाद के विश्लेषण पर मार्क्सवादी आलोचकों ने ही व्यवस्थित काम किया है। इन लोगों ने छायावादी रचनाकारों की पारम्परिक चिन्तनधारा को अनदेखा करने का काम किया है। वागीश शुक्ल ने निराला पर नई दृष्टि से चिन्तन किया है। रामस्वरूप चतुर्वेदी की आलोचना में भी कुछ नयापन है। लेकिन आधुनिक काल के भारतीय चिन्तकों-श्रीरामकृष्ण, विवेकानन्द, महात्मा गांधी, श्रीअरविन्दो या इनके पूर्व के आचार्यों- शंकराचार्य, रामानुजाचार्य, वल्लभाचार्य, अभिनवगुप्त, गोरखनाथ, कबीर आदि की चिन्तन धारा के आलोक में छायावादी कवियों एवं लेखकों का व्यवस्थित मूल्यांकन होना अभी बाकी है।

 

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