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History of Maharajganj, Uttar Pradesh

History of Maharajganj, Uttar Pradesh

महाराजगंज - 'इतिहास के आईने में'

    2 अस्तित्व में आने वाले महराजगंज जनपद के इतिहास की रुपरेखा पुनर्गठन करना एक चुनौतीपूर्ण कार्य है। प्राचीन भारतीय साहित्य में इस क्षेत्र का कम ही उल्लेख हुआ है ऐसी स्थिति में तर्कपूर्ण अनुमान का आश्रम लेते हुए उपलब्ध साहित्यिक एवं पुरातात्विक स्रोतों की सम्यक समीक्षा के उपरान्त इस जनपद का इतिहास निर्विवाद रूप से प्रस्तुत कर पाना असंभव है। फिर भी इसके गौरवशाली अतीत के पुनर्निर्माण का प्रयास इस लेख का अभीष्ट है। 

हाकाव्य - कल में यह क्षेत्र करपथ के रूप में जाना जाता था, जो कोशल राज्य का एक अंग था। ऐसा प्रतीत होता है कि इस क्षेत्र पर राज्य करने वाले प्राचीनतम सम्राट इक्ष्वाकु थे, जिनकी राजधानी अयोध्या थी। इक्ष्वाकु के उपरान्त इस राजवंश को अनेक छोटे-छोटे राज्यों में बाँट दिया और अपने पुत्र कुश को कुशावती का राजा बनाया, जिसकी आधुनिक समता कुशीनगर के साथ स्थापित की जाती है। राम के संसार त्याग के उपरान्त कुश ने कुशावती का परित्याग कर दिया और अयोध्या लौट गये। बाल्मीकि रामायण से ज्ञात होता है कि मल्ल उपाधिकारी लक्ष्मण पुत्र चन्द्रकेतु ने इसके उपरान्त इस सम्पूर्ण क्षेत्र के शासन सूत्र का संचालन करना प्रारम्भ किया। 

पने मनोहारी वनों, वनस्पतियों एवं धान के लहलहाते खेतों के लिए विख्यात वर्तमान महराजगंज जनपद के प्राचीनतम इतिहास की वास्तविक रुपरेखा प्रस्तुत करना अत्यन्त दुष्कर एवं चुनौतीपूर्ण कार्य है। महाकाव्य काल में यह क्षेत्र 'कारापथ' के रूप में जाना जाता था, जो कोसल राज्य का एक अंग था। ऐसा प्रतीत होता है कि इस क्षेत्र पर राज्य करने वाले प्राचीनतम सम्राट अयोध्या नरेश इक्ष्वाकु थे, जिन्होंने सुर्यवंश की स्थापना की थी। इक्ष्वाकु के उपरान्त इस वंश में अनेक प्रतापी सम्राट हुए। अंतत: सम्राट राम ने अपने जीवन कल में कोसल साम्राज्य को अनेक छोटे-छोटे राज्यों में विभाजित कर दिया और इस क्षेत्र का शासन अपने पुत्र कुश को सौंपा। वाल्मीकि रामायण से ज्ञात होता है कि इसके उपरान्त 'मल्ल' उपाधि धारी लक्ष्मण पुत्र चंद्रकेतु इस सम्पूर्ण क्षेत्र का अधिपति बना। 

हाभारत में वर्णित है कि युधिस्ठिर द्वारा सम्पादित राजसुत्र यज्ञ के अवसर पर पूर्ववर्ती क्षेत्रों कि विजित करने का उत्तरदायित्व सौंपा गया था। फलत: भीमसेन ने गोपालक नामक राज्य को जीत लिया। जिसके बासगाँव स्थित गोपालपुर के साथ स्वीकृत किया जाता है। ऐसा प्रतीत होता है कि वर्तमान महराजगंज जनपद का दक्षिणी भाग निश्चित रूप से भीमसेन कि इस विजय यात्रा से प्रभावित हुआ होगा। 

हाभारत के युग के उपरान्त इस सम्पूर्ण क्षेत्र में क्रांतिकारी परिवर्तन हुआ। कोशल राज्य के अधीन अनेक छोटे-छोटे गणतंत्रात्मक राज्य असितत्व में आये, जिसमें कपिलवस्तु के शाक्यों और रामग्राम के कोलियों का राज्य वर्तमान महराजगंज जनपद की सीमाओं में भी विस्तृत था। शाक्य एवं कोलिय गणराज्य की राजधानी रामग्राम की पहचान की समस्या अब भी उलझी हुई है। डा. राम बली पांडेय ने रामग्राम को गोरखपुर के समीप स्थित रामगढ़ ताल से समीकृत करने का प्रयास किया है किन्तु आधुनिक शोधों ने इस समस्या को नि:सार बना दिया है। को लिय का सम्बंध देवदह नामक नगर से भी था। बौद्धगंथों में भगवान गौतम बुद्ध की माता महामाया, मौसी महाप्रजापति गौतमी एवं पत्नी भद्रा कात्यायनी (यशोधरा) को देवदह नगर से ही सम्बनिधत बताया गया है। महराजगंज जनपद के अड्डा बाजार के समीप स्थित बनसिहा- कला में 88.8 एकड़ भूमि पर एक नगर, किले एवं स्तूप के अवशेष उपलब्ध हुए हैं। 1992 में डा. लाल चन्द्र सिंह के नेतृत्व में किये गये प्रारंभिक उत्खनन से यहां टीले के निचते स्तर से उत्तरी कृष्णवणीय मृदमाण्ड (एन.बी.पी.) पात्र- परम्परा के अवशेष उपलब्ध हुए हैं गोरखपुर विश्वविधालय के प्राचीन इतिहास विभाग के पूर्व अध्यक्ष डा. सी.डी.चटर्जी ने देवदह की पहचान बरसिहा कला से ही करने का आग्रह किया। महराजगंज में दिनांक 27-2-97 को आयोजित देवदह-रामग्राम महोत्सव गोष्ठी में डा. शिवाजी ने भी इसी स्थल को देवदह से समीकृत करने का प्रस्ताव रखा था। सिंहली गाथाओं में देवदह को लुम्बिनी समीप स्थित बताया गया है। ऐसा प्रतीत होता है कि देवदह नगर कपिलवस्तु एवं लुम्बिनी को मिलाने वाली रेखा में ही पूर्व की ओर स्थित रहा होगा। श्री विजय कुमार ने देवदह के जनपद के धैरहरा एंव त्रिलोकपुर में स्थित होने की संभावना व्यक्त की है। पालि-ग्रन्थों में देवदह के महाराज अंजन का विवरण प्राप्त होता है। जिनके दौहित्र गौतम बुद्ध थे। प्रो. दयानाथ त्रिपाठी की मान्यता है कि महाराज अंजन की गणभूमि ही कलांतर में विकृत होकर महाराजगंज एवं अंन्तत: महाराजगंज के रूप परिणित हुई। फारसी भाषा का गंज शब्द बाजार, अनाज की मंडी, भंडार अथवा खजाने के अर्थ में प्रयुक्त है जो महाराजा अंजन के खजाने अथवा प्रमुख विकय केन्द्र होने के कारण मुसिलम काल में गंज शब्द से जुड़ गया। जिसका अभिलेखीय प्रमाण भी उपलब्ध है। ज्ञातव्य हो कि शोडास के मथुरा पाषाण लेख में गंजवर नामक पदाधिकारी का स्पष्ट रूप से उल्लेख किया गया है। छठी शताब्दी ई0 में पूर्व में अन्य गणतंत्रों की भांति कोलिय गणतंत्र भी एक सुनिश्चित भोगौलिक इकाई के रूप में स्थित था। यहां का शासन कतिपय कुलीन नागरिकों के निर्णयानुसार संचालित होता था। तत्कालीन गणतंत्रों की शासन प्रणाली एवं प्रक्रिया से स्पष्टत: प्रमाणित होता है कि जनतंत्र बुद्ध अत्यन्त लोकप्रिय थे। इसका प्रमाण बौद्ध ग्रंथों में वर्णित शक्यो एवं कोलियों के बीच रोहिणी नदी के जल के बटवारें को लेकर उत्पन्न विवाद को सुलझाने में महात्मा बुद्ध की सक्रिय एवं प्रभावी भूमिका में दर्शनीय है। इस घटना से यह भी प्रमाणित हो जाता है कि इस क्षेत्र के निवासी अति प्राचीन काल से ही कृषि कर्म के प्रति जागरूक थे। कुशीनगर के बुद्ध के परिनिर्वाण के उपरांत उनके पवित्र अवशेष का एक भाग प्राप्त करने के उद्देश्य से जनपद के कोलियों का दूत भी कुशीनगर पहुंचा था। कोलियों ने भगवान बुद्ध क पवित्र अवशेषों के ऊपर रामग्राम में एक स्तूप निर्मित किया था, जिसका उल्लेख फाहियान एवं हवेनसांग ने अपने विवरणों में किया है। निरायवली-सूत्र नामक ग्रंथ से ज्ञात होता है कि जब कोशल नरेश अजातशत्रु ने वैशाली के लिचिछवियों पर आक्रमण किया था, उस समय लिचिछवि गणप्रमुख चेटक ने अजातशत्रु के विरूद्व युद्ध करने के लिए अट्ठारह गणराज्यों का आहवान किया था। इस संघ में कोलिय गणराज्य भी सम्मिलित था। छठी षताब्दी ई. पूर्व के उपरांत राजनीतिक एकीकरण की जो प्रक्रिया प्रारम्भ हुई उसकी चरम परिणति अशोक द्वारा कलिंग युद्ध के अनंतर शास्त्र का सदा के लिए तिलांजलि द्वारा हुआ। महराजगंज जनपद का यह संपूर्ण क्षेत्र नंदों एवं मौर्य सम्राटों के अधीन रहा। फाहियान एंव हवेनसांग ने सम्राट अशोक के रामग्राम आने एवं उसके द्वारा रामग्राम स्तूप की धातुओं को निकालने के प्रयास का उल्लेख किया है। अश्वघोष के द्वारा लिखित बुद्ध चरित (28/66) में वर्णित है कि समीप के कुण्ड में निवास करने वाले एवं स्तूप की रक्षा करने की नाग की प्रार्थना से द्रवित होकर उसने अपने संकल्प की परित्याग कर दिया था। 

गुप्तों के अभ्युदय के पूर्व मगध की सत्ता के पतन के बीच का काल जनपद के ऐतिहासिक घटनाओं के विषय में अंध-युग की भांति है। ऐसा प्रतीत होता है कि कुषाणों ने इस क्षेत्र पर शासन स्थापित करने में सफलता प्राप्त की थी। कुषाणों के उपरांत यह क्षेत्र गुप्तों की अधीनता में चला गया। चौथी शताब्दी ई. के प्रारम्भ में जनपद का अधिकांश क्षेत्र चन्द्रगुप्त प्रथम के राज्य में समिमलित था, जिसने लिच्छवि राजकुमारी कुमारदेवी के साथ वैवाहिक संबंध स्थापित करके अपनी शक्ति एवं सीमा का अभूतपूर्व विस्तार किया। चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य के शासन काल में इस जनपद का क्षेत्र श्रावस्ती मुक्ति में सम्मिलित था। चीनी यात्री फाहियान (400-411 ई.) अपनी तीर्थ यात्राओं के क्रम में कपिलवस्तु एवं रामग्राम भी आया था। उसने आस-पास के वनों एवं खण्डहरों का उल्लेख किया है। गुप्त काल के उपरांत यह क्षेत्र मौखरियों एवं हर्ष के आधिपत्य में रहा। हर्ष के शासना काल मे हवेनसांग (630-६४४ ई.) ने भी विप्पलिवन और रामग्राम की यात्राएं संपन्न की थी। हर्ष के उपरांत इस जनपद के कुछ भाग पर भरों का अधिकार हो गया। गोरखपुर के धुरियापुर नामक स्थान से प्राप्त कहल अभिलेख से ज्ञात होता है कि 9 वीं शताब्दी ई. में महराजगंज जनपद का दक्षिणी भाग गुर्जर प्रतिहार नरेशॉ के श्रावस्ती मुक्ति में सम्मिलित था, जहां उनके सामान्त कलचुरियों की सत्ता स्थापित की। जनश्रुतियों के अनुसार अपने अतुल एश्वर्या का अकूत धन-सम्पदा के लिए विख्यात थारू राजा मानसेन या मदन सिंह 900-950 गोरखपुर और उसके आस-पास के क्षेत्रों पर शासन करता था। संभव है कि उसका राज्य महराजगंज जनपद की दक्षिणी सीमाओं को भी आवेष्ठित किये रहा है। गुर्जर प्रतिहारों के पतन के उपरांत त्रिपुरी के कलचुरि-वंश के शासक लक्ष्मण कर्ण (1041-10720) ने इस जनपद के अधिकांश भूभाग को अपने अधीन कर लिया था। किंतु ऐसा प्रतीत होता है कि उसका पुत्र एवं उत्तराधिकारी यश्कर्ण 1073-1120 इस क्षेत्र पर अधिकार जमा लिया। अभिलेखिक स्रोतों से ज्ञात होता है कि गोविन्द चन्द्र गाहड़वाल 1114-1154 ई. का राज्य विकार तक प्रसारित था। उसके राज्य में महराजगंज जनपद का भी अधिकांश भाग निश्चितत: सम्मिलित रहा होगा। गोरखपुर जनपद के मगदिहा (गगहा) एवं धुरियापार से प्राप्त गोविन्द चन्द्र के दो अभिलेख उपर्युक्त तथ्य की पुष्टि है। गोविन्दचन्द के पौत्र जयचन्द्र (1170-1194 ई.) की 1194 में मुहम्मद गोरी द्वारा पराजय के साथ ही इस क्षेत्र से गाहड़वाल सत्ता का लोप हो गया और स्थानीय शक्तियों ने शासन-सूत्र अपने हाथों में ले लिया। 12 वीं शताब्दी ई. के अंतिम चरण में जब मुहम्मद गौरी एवं उसके उत्तराधिकारी कुतुबुददीन ऐबक उत्तरी भारत में अपनी नवस्थापित सत्ता को सुदृढ़ करने में लगे हुए थे इस क्षेत्र पर स्थानीय राजपूत वंशों का राज्य स्थापित था। चन्द्रसेन श्रीनेत के ज्येष्ठ पुत्र ने सतासी के राजा के रूप में एक बड़े भूभाग पर अधिकार जमाया, जिसमें महराजगंज जनपद का भी कुछ भाग सम्मिलित रहा होगा। इसके उपरांत फिरोज शाह तुगलक के समय तक इस क्षेत्र पर स्थानीय राजपूत राजाओं का प्रभुत्व बना रहा। उदयसिंह के नेतृत्व में स्थानीय राजपूत राजाओं ने गोरखपुर के समीप शाही सेना को उपहार, भेंट एवं सहायता प्रदान किया था। 1394 ई. में महमूद शाह तुगलक दिल्ली की गद्दी पर आसीन हुआ। उसने मलिक सरवर ख्वाजा जहां को जौनपुर का सूबेदार नियुक्त किया। जिसने सर्वप्रथम इस क्षेत्र को अपने अधीन करके यहां से कर वसूल किया। इसके कुछ ही समय बाद मलिक सरवर ने दिल्ली सल्तनत के विरूद्ध अपनी स्वतंत्रता की घोषणा करते हुए जौनपुर में शर्की-राजवंश की स्थापना की तथा गोरखपुर के साथ-साथ इस जनपद के अधिकांश भूभाग पर अपना प्रभुत्व स्थापित किया। 1526 ई. में पनीपत के युद्ध में बाबर द्वारा इब्राहिम लोदी के पराजय के साथ ही भारत में मुगल राजवंश की सत्ता स्थापित हुई, किन्तु न तो बाबर और न ही उसके पुत्र एवं उत्तराधिकारी हुमायूं इस क्षेत्र पर अधिकार करने का कोई प्रयास कर सके। 1556 ई. में सम्राट अकबर ने इस ओर ध्यान दिया। उसने खान जमान (अली कुली खां) के विद्रोहों का दमन करते हुए इस क्षेत्र पर मुगलों के प्रभुत्व को स्थापित करने का प्रयास किया। 1567 ई. में खान जमान की मृत्यु के उपरांत अकबर ने जौनपुर की जागीर मुनीम खां को सौंप दी। मुनीम खां के समय में इस क्षेत्र में शांति और सुव्यवस्था स्थापित हुई। अकबर ने अपने साम्राज्य का पुनर्गठन करते हुए गोरखपुर क्षेत्र को अवध प्रांत के पांच सरकारों में सम्मिलित किया गोरखपुर सरकार के अन्तर्गत चौबीस महल समिमलित थे, जिनमें वर्तमान महराजगंज जनपद में स्थित विनायकपुर और तिलपुर के महल भी थे। यहां सुर्यवंश राजपूतों का अधिकार था। इन महलों के मुख्यालयों पर ईटों से निर्मित किलों का निर्माण सीमा की सुरक्षा हेतु किया गया था। विनायकपुर महल शाही सेना हेतु 400 घोड़े और 3000 पदाति प्रदान करता था। जबकि तिलपुर महल 100 अश्क एवं 2000 पैदल भेजता था। तिलपुर महल के अन्तर्गत 9006 बीघा जमीन पर कृषि कार्य होता और इसकी मालगुजारी चार लाख दाम निर्धारित की गयी थी। विनायक महल में कृषि योग्य भूमि 13858 बीघा थी और उसकी मालगुजारी 6 लाख दाम थी। तिलपुर, जिसकी वर्तमान समता निचलौल के साथ स्थापित की जाती है, में स्थित किले का उल्लेख अबुल-फजल की अमरकृति आइन-ए-अकबरी में भी किया गया है। अकबर की मृत्यु के बाद 1610 ई. में जहांगीर ने इस क्षेत्र की जागीर अफजल खां को सौंप दी। तत्पश्चात यह क्षेत्र मुगलों के प्रभुत्व में बना रहा।    

ठारहवीं शताब्दी ई. में प्रारम्भ में यह क्षेत्र अवध के सूबे के गोरखपुर सरकार का अंग था। इस समय से लेकर अवध में नवाबी शासन की स्थापना के समय तक इस क्षेत्र पर वास्तविक प्रभुत्व यहां के राजपूत राजाओं का था, जिनका स्पष्ट उल्लेख वीन ने अपनी बन्दोबस्त रिपोर्ट में किया है। 9 सितम्बर 1722 ई. को सआदत खां को अवध का नवाब और गोरखपुर का फौजदार बनाया गया। सआदत खां ने गोरखपुर क्षेत्र में स्थित स्थानीय राजाओं की शक्ति को कुलचने एवं प्रारम्भ में उसने वर्तमान महराजगंज क्षेत्र में आतंक मचाने वाले बुटकल घराने के तिलकसेन के विरूद्व अभियान छेड़ा, किन्तु इस कार्य में उसे पूरी सफलता नहीं मिल सकी। 19 मार्च 1739 को सआदत खां की मृत्यु हो गयी तथा सफदरजंग अवध का नवाब बना। उसने एक सेना तत्कालीन गोरखपुर के उत्तरी भाग (वर्तमान महराजगंज) में भेजा, जिसने बुटवल के तिलकसेन के पुत्र को पराजित करके उससे प्रस्तुत धनराशि वसूल किया। इसके बाद दोनों पक्षों में छिटपुट संघर्ष होते रहे और अंतत: 20 वर्षों के लम्बे संघर्ष के उपरांत बुटकल के राजा ने आत्मसमर्पण कर दिया।     

5 अक्टूबर 1754 को सफदरजंग की मृत्यु हुई और उसका पुत्र एवं उत्तराधिकारी शुजाऊददौला अवध का नवाब बना। उसके शासन काल में इस क्षेत्र में सुख-समृद्धि का वातावरण उत्पन्न हुआ। डा. आशीर्वादी लाल श्रीवास्तव ने उसके शासन काल में इस क्षेत्र में प्रभूत मात्रा में उत्पन्न होने वाले सिनग्ध और सुगंधित चावल का विशेष रूप से उल्लेख किया है। उस समय अस्सी प्रतिशत आबादी कृषि कार्य कर रही थी। 26 जनवरी 1775 को शुजाऊददौला की मृत्यु हुई और उसका पुत्र आसफददौला गददी पर बैठा। उसके शासन काल में स्थानीय शासक, बजारों की बढ़ती हुई शक्ति को कुचलने में असमर्थ रहे। विभिन्न संधियों के द्वारा कंपनी की सेना के प्रयोग का व्यय अवध के ऊपर निंरतर बढ़ रहा था। फलत: 10 नवम्बर 1801 को नवाब ने कंपनी के कर्ज से मुकित हेतु कतिपय अन्य क्षेत्रों के साथ-साथ गोरखपुर क्षेत्र को भी कंपनी को दे दिया। इस संधि के फलस्वरूप वर्तमान महराजगंज का क्षेत्र भी कंपनी के अधिकार में चला गया। इस संपूर्ण क्षेत्र का शासन रूटलेज नामक कलेक्टर को सौंपा गया। जिसने सर्वत्र अव्यवस्था, अशांति एवं विद्रोह का दर्शन किया।     

गोरखपुर के सत्तान्तरण के पूर्व ही तत्कालीन अव्यवस्था का लाभ उठाते हुए गोरखों ने वर्तमान महराजगंज एवं सिद्धार्थनगर के सीमावर्ती क्षेत्रों में अपनी स्थिति सुदृढ़ करना प्रारम्भ कर दिया था। विनायकपुर एवं तिलपुर परगने के अन्तर्गत उनका अतिक्रमण तीव्रगति से हुआ जो वस्तुत: बुटवल के कलेक्टर के साथ इस जनपद में स्थति अपनी अवशिष्ट जमीदारी की सुरक्षा हेतु बत्तीस हजार रूपये सालाना पर समझौता किया था। बाद में अंग्रेजों ने उसे बकाया धनराशी न दे पाने के कारण बन्दी बना दिया। 1805 ई. में गोरखों बुटवल पर अधिकार कर लिया और अंग्रेजों की कैद से छूटने के उपरांत बुटवल नरेश काठमाण्डू में हत्या कर दी। 1806 ई. तक इस क्षेत्र अधिकांश भू-भाग गोरखों के कब्जे में जा चुका था। यहां तक कि 1810-11 ई. में उन्होंने गोरखपुर में प्रवेश करते हुए पाली के पास स्थित गांवों को अधिकृत कर लिया। गोरखों से इस सम्पूर्ण क्षेत्र को मुक्त कराने के लिए मेजर जे.एस.वुड के नेतृत्व में अंग्रेज सेना ने बुटवल पर आक्रमण किया। वुड संभवत: निचलौल होते हुए 3 जनवरी 1815 को बुटवल पहुंचा। बुटवल ने वजीर सिंह के नेतृत्व में गोरखों ने युद्ध की तैयारी कर ली थी, किन्तु अंग्रेजी सेना के पहुंचाने पर गोरखे पहाड़ों में पलायित हो गये। वुड उन्हें परास्त करने में सफल नहीं हो सका। इसी बीच गोरखों ने तिलपुर पर आक्रमण कर दिया और वुड को उनका सामना करने के लिए तिलपुर लौटना पड़ा। उसकी ढुलमुल नीति के कारण गोरखे इस संपूर्ण क्षेत्र में धावा मारते रहे और नागरिकों का जीवन कण्टमय बनाते रहे। यहां तक कि वुड ने 17 अप्रैल 1815 को बुटवल पर कई घंटे तक गोलाबारी की किन्तु उसका अपेक्षित परिणाम नहीं निकला। तत्पश्चात कर्नल निकोलस के नेतृत्व में गोरखों से तराई क्षेत्र को मुक्त कराने का द्वितीय अभियान छेड़ा गया। कर्नल निकोलस ने गोरखों के ऊपर जो दबाव बनाया, उससे 28 नवम्बर 1815 को अंग्रेजों एवं गोरखों के बीच प्रसिद्ध सगौली की संधि हुई किन्तु बाद में गोरखे संधि की शर्तों को स्वीकार करने में आनाकानी करने लगे। फलत: आक्टर लोनी के द्वारा निर्णायक रूप से पराजित किये जाने के बाद 4 मार्च 1816 को नेपाल-नरेश इस संधि को मान्यता प्रदान कर दी। इस संधि के फलस्वरूप नेपाल ने तराई क्षेत्र पर अपना अधिकार छोड़ दिया और यह क्षेत्र कंपनी के शासन के अन्तर्गत सम्मिलित कर लिया गया। 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम ने इस क्षेत्र में नवीन प्राण-शक्ति का संचार किया। जुलाई 1857 में इस क्षेत्र के जमींदारों के ब्रिटिश राज्य के अंत की घोषणा की। निचलौल के राजा रण्डुलसेन ने अंग्रेजों के विरूद्व आंदोलनकारियों का नेतृत्व किया। 26 जुलाई को सगौली में विद्रोह होने पर वनियार्ड (गोरखपुर के तत्कालीन जज) के कर्नल राउटन को वहां शीघ्र पहुंचने के लिए पत्र लिखा, जो काठमाण्डु से निचलौल होते हुए तीन हजार गोरखा सैनिकों के साथ गोरखपुर की ओर बढ़ रहा था, गोरखों के प्रयास के बावजूद वनियार्ड आंदोलन को पूरी तरह दबाने में असमर्थ रहा। फलत: उसने गोरखपुर जनपद का प्रशासन सतासी और गोपालपुर के राजा को सौंप दिया। किन्तु अन्दोलानकर्ता बहुत दिन तक इस क्षेत्र को मुक्त नहीं रख सके और अंग्रेजों ने पुन: इस क्षेत्र को अपने पूर्ण नियंत्रण में ले लिया। निचलौल के राजा रण्डुलसेन को आंदोलनकारियों का नेतृत्व करने के कारण न केवल उसको पूर्व प्रदत्त राजा की उपाधि से वंचित कर दिया गया अपितु 1845 ई. में उसे दी गई पेंशन भी छीन ली गई। 1857 ई. के प्रथम स्वतंत्रता आन्दोलन के उपरांत नवम्बर 1858 ई. में रानी विक्टोरिया के घोषणा पत्र द्वारा यह क्षेत्र भी सीधे ब्रिटिश सत्ता के अधीन हो गया। ब्रिटिश शासन काल में भी सामान्य जनता की कठिनाइयां दूर नहीं हो सकी। भूमि संबंधी विभिन्न बन्दोबस्तों के बावजूद कृषकों को उनकी भूमि पर कोई अधिकार नहीं मिल सका, जबकि जमीदार मजदूरों एवं कृषकों के श्रम के शोषण से संपन्न होते रहे। किसान एवं जमीदार के बीच का अंतराल बढ़ता गया।    

1920 ई. में गांधी जी के द्वारा असहयोग आंदोलन प्रारम्भ किया जिसका प्रभाव इस क्षेत्र पर भी पड़ा। 8 फरवरी 1921 को गांधी जी गोरखपुर आये जिससे यहां के लोगों में ब्रिटिश राज के विरूद्व संघर्ष छेड़ने के लिए उत्साह का संचार हुआ। शराब की दूकानों पर धरना दिया गया ताड़ के वृक्षों को काट डाला गया। विदेशी कपड़ों का बहिष्कार हुआ और उसकी होली जलायी गयी। खादी के कपड़े का प्रचार-प्रसार हुआ। 2 अक्टूबर 1922 को इस संपूर्ण क्षेत्र में गांधी जी का जन्म दिन अंन्यत: उत्साह के साथ मनाया गया। 1923 ई. में पं. जवाहर लाल नेहरू ने इस क्षेत्र का दौरा किया, जिसके फलस्वरूप कांग्रेस कमेटियों की स्थापना हुई। अक्टूबर 1929 में पुन: गांधी जी ने इस क्षेत्र का व्यापक दौरा किया। 4 अक्टूबर 1929 को घुघली रेलवे स्टेषन पर दस हजार देशभक्तों उनका भव्य स्वागत किया। 5 अक्टूबर 1929 को गांधी जी ने महराजगंज में एक विशप जनसभा को संबोधित किया। महात्मा गांधी की इस यात्रा ने इस क्षेत्र के देशभक्तों में नवीन स्फूर्ति का संचार किया, जिसका प्रभाव 1930-34 तक के सविनय अवज्ञा आंदोलनों में देखने को मिला।     

1930 ई. के नमक सत्याग्रह के समय भी इस क्षेत्र ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। नमक कानून के विरूद्व सत्याग्रह, हड़ताल सभा एवं जुलूस का आयोजन किया गया। 1931 ई. में जमीदारों के अत्याचार के विरूद्व यहां की जनता ने किसान आंदोलन में भाग लिया। उसी समय श्री शिब्बनला सक्सेना ने महात्मा गांधी के आहवान पर सेण्ट एण्ड्रूज कालेज के प्रवक्ता पद का परित्याग कर पूर्वांचल के किसान-मजदूरों का नेतृत्व संभाला। 1931 में सक्सेना जी ने ईख-संघ की स्थापना की, जो यहां के गन्ना उत्पादकों एवं मजदूरों के हितों की सुरक्षा हेतु संघर्ष के लिए उधत हुई। मई 1937 में पं. गोविन्द वल्लभ पन्त यहां आये ओर एक जनसभा को सम्बोधित किया। फरवरी 1940 में पुन: पंडित नेहरू यहां आये और गणेष शंकर विधार्थी स्मारक विधालय की आधारशिला रखी। 1942 ई. भारतीय इतिहास में एक युगांतकारी परिवर्तन की चेतना के लिए ख्यात है। इस चेतना का संचार इस क्षेत्र में भी हुआ और यह क्षेत्र भी कुछ कर गुजरने को तैयार था। इस समय यहां के आंदोलनकारियों का नेतृत्व श्री शिब्बन लाल सक्सेना कर रहे थे। अंग्रेजों भारत छोड़ो एवं 'करो या मरो' का नारा जन-जन की वाणी में समाहित हो रहा था। अगस्त क्रांति के दौरान गुरूधोवा ग्राम में शिब्बन लाल सक्सेना को उनकी गिरफ्तारी के समय गोली मारी गई किंतु वह गोली उनके कंधे के पास से निकलते हुए, उस जमीदार को लग गई जिसने सक्सेना जी को बंदी बनाया था। गोरखपुर के तत्कालीन, जिलाधीश श्री ई.वी.डी. मास के आदेश पर 27 अगस्त 1942 को विशुनपुर गबडुआ गांव में निहत्थे एवं शांतिप्रिय नागरिकों पर गोली चलाई गई जिसमें सुखराज कुर्मी एंव झिनकू कुर्मी नामक दो कांतिकारी वीर शहीद हो गये। पुलिस की गोली से आहत काशीनाथ कुर्मी को 1943 में जेल में ही मृत्यु हो गयी। सक्सेना जी को ब्रिटिश राज के विरूद्व षडयंत्र रचने के आरोप में 26 महीने कठोर कारावास एवं 26 महीने फांसी की कोठरी में रखा गया।

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